________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mo000000000000000000000000000000000000000000r soo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! (दंसण) शुद्ध श्रद्धा रखता हो (विणए) विनयी हो (आवस्सए) आवश्यक प्रतिक्रमण दोनों समय करता हो, (निरइयारो) दोष रहित (सीलव्वए) शील और व्रत को जो पालता हो, (खणलव) अच्छा ध्यान ध्याता हो अर्थात् सुपात्र को दान देने की भावना रखता हो (तव) तप करता हो। (च्चियाए) त्याग करता हो, (वयावच्चे) सेवा भाव रखता हो (य) और (समाही) स्वस्थ चित्त से रहता हो। ___भावार्थ : हे गौतम! जो शुद्ध श्रद्धा का अवलम्बी हो, नम्रता ने जिसके हृदय में निवास कर लिया हो, दोनों समय सांझ और सुबह अपने पापों की आलोचन रूप प्रतिक्रमण को जो करता हो, निर्दोष शीलव्रत को जो पालता हो, आर्त रौद्र ध्यान को अपनी ओर झाँकने तक न देता हो, अनशन व्रत का जो व्रती हो, या नियमित रूप से कम खाता हो, मिष्टान आदि का परित्याग करता हो आदि, इन बारह प्रकार के तपों में से कोई भी तप जो करता हो, सुपात्र दान देता हो, जो सेवा भाव में अपना शरीर अर्पण कर चुका हो और सदैव चिन्ता रहित जो रहता हो। मूल : अप्पुवणाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्ययर लहइ जीवो||१४|| छायाः अपूर्वज्ञानग्रहणं, श्रुतभक्तिः प्रवनचप्रभावनया। एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः / / 14 / / दण्डान्वय : हे इन्द्रभूति! जो (अप्पुव्वणाणगहणे) अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करता हो (सुयभत्ती) सूत्र शास्त्रों को आदर की दृष्टि से देखता हो, (पवयणे) निर्ग्रन्थ प्रवचन की (पभावणया) प्रभावना करता हो, (एएहिं) इन (कारणेहिं) सम्पूर्ण कारणों से (जीओ) जीव (तित्थयरत्तं) तीर्थकरत्व को (लहइ) प्राप्त कर लेता है। भावार्थ : हे आर्य! आये दिन कुछ न कुछ नवीन ज्ञान को जो ग्रहण करता रहता हो, सूत्र के सिद्धान्तों को आदर भावों से जो अपनाता हो, जिनशासन की प्रभावना उन्नति के लिए नये नये उपाय जो ढूंढ निकालता हो, इन्हीं कारणों में से किसी एक बात का भी प्रगाढ़ रूप से सेवन जो करता हो, वह फिर चाहे किसी भी जाति व कौम का क्यों न हो, भविष्य में तीर्थंकर होता है। मूल: पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं मेहुणं दवियमुच्छं। कोहं माणंमायं, लोभं पेज्जं वहा दोस||१५|| gooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot O D ooooooo00000000000 Jain Education International 0000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/59 000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only www.james