SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Moo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउविणो। उड्ढं कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वा बाससया बहू||२९|| अर्पिता देवकामान्, कामरुपवैक्रेपिणः। ऊर्ध्वं कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणि वर्ष शतानि बहूनि।।२६ / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (विसालिसेहिं) विसदृश अर्थात् भिन्न भिन्न (सीलेहिं) सदाचारों से (उत्तरउत्तरा) प्रधान से प्रधान (महासुक्का) महाशुक्ल अर्थात् बिलकुल सफेद चन्द्रमा की (व) तरह (दिप्पंता) देदीप्यमान (अपुणच्चव) फिर चवना नहीं ऐसा (मण्णता) मानते हुए (कामरूवविउविणो) इच्छित रूप के बनाने वाले (बहू) बहुत (पुव्वावाससया) सैंकड़ों पूर्व वर्ष पर्यंत (उड्ढ) ऊँचे (कप्पेसु) देवलोक में (देवकामाणं) देवताओं के सुख प्राप्त करने के लिए (अप्पिया) अर्पण कर दिये हैं। सदाचार रूप व्रत अपनाकर ऐसी आत्माएँ (जक्खा) देवता बनकर (चिट्ठति) रहती हैं। भावार्थ : हे गौतम! आत्मा अनेक प्रकार के सदाचारों का सेवन कर स्वर्ग में जाती हैं। तब वह वहाँ एक से एक देदीप्यमान शरीर को धारण करती हैं और वहाँ दस हजार वर्ष से लेकर कई सागरोपम तक रहती है। ऐसी आत्माएँ देव लोक के सुखों में ऐसी लीन हो जाती हैं कि वहाँ से अब मानों वे कभी मरेंगी ही नहीं, इस तरह से वे मान बैठती हैं। मूल : जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण सम मिणे। एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए||३०|| छायाः यथा कुशाग्रे उदकं, समुद्रेण समं मिनुयात्। एवं मानुष्यकाः कामाः, देवकामानामन्तिके।।३०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (कुसग्गे) घास के अग्र भाग पर की (उदगं) जल की बूंद का (समुद्देण) समुद्र के (सम) साथ (मिणे) मिलान किया जाए तो क्या वह उसके बराबर हो सकती है! नहीं (एवं) ऐसे ही (माणुस्सगा) मनुष्य संबंधी (कामा) काम भोगों के (अंतिए) समीप (देवकामाणं) देव संबंधी काम भोगों को समझना चाहिए। _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार घास के अग्र भाग पर जल की बूंद में और समुद्र की जल राशि में भारी अन्तर है। अर्थात् कहाँ तो पानी igooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 oooooooo D0000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/190K Jan E For Personal &Private Usea000000000000000004 www.gainelibrary.org/
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy