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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot 180000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूलः जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलि' यं ते अइत्यिया। सीलवंता सवीसेसा, अदीणा जंति देवयं||२७|| छायाः येषां तु विपुला शिक्षा, मूलकं तेऽतिक्रान्ताः। शीलवन्तः सविशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम्।।२७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जेसिं) जिन्होंने (विउला) अत्यन्त (सिक्खा) शिक्षा का सेवन किया है। (ते) वे (सीलवंता) सदाचारी (सवीसेसा) उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करने वाले (अदीणा) अदीन-वृत्ति वाले (मूलिय) मूल धन रूप मनुष्य-भव को (अइत्थिया) उल्लंघन कर (देवयं) देव लोक को (जंति) जाते हैं। ____भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार के देवलोकों में वे ही मनुष्य जाते हैं जो सदाचार रूप शिक्षाओं को नित्य सेवन करते हैं और त्याग धर्म में जिनकी निष्ठा दिनों दिन बढ़ती ही जाती है। वे मनुष्य, मनुष्य भव को त्यागकर स्वर्ग में जाते हैं। मूल : विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा। महासुक्का वदिपंता, मण्णंता अपुणच्चवं|२८| छाया: विलदृशैः शीलैः, यक्षा उत्तरोत्तराः। महा शुक्ला इव दीप्तमानाः, मन्यमाना अपुनश्चैवम्।२८।। gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope कथा सन्दर्भ : किसी एक साहूकार ने अपने तीन लड़कों को एक-एक हजार रूपया देकर व्यापार करने के लिए इतर देश को भेजा। उनमें से एक ने तो यह विचार किया कि अपने घर में खूब धन है। फिजूल ही व्यापार कर कौन कष्ट उठावे, अतः एशोआराम करके उसने मूल पूंजी को भी खो दिया। दूसरे ने विचार किया कि व्यापार करके मूल पूंजी तो ज्यों की त्यों कायम रखनी चाहिए परन्तु जो लाभ हो, उसे एशो आराम में खर्च कर देना चाहिए और तीसरे ने विचार किया कि मूल पूंजी को खूब ही बढ़ाकर घर चलाना चाहिए। इसी तरह वे तीनों नियत समय पर घर आये। एक मूल पूंजी को खूबकर, दूसरा मूल पूंजी लेकर और तीसरा मूल पूंजी को खूब ही खूब बढ़ाकर घर आया। सहा इसी तरह आत्माओं को मनुष्य भव रूप मूल धन प्राप्त हुआ है। जो आत्माएँ मनुष्य भव रूप मूल धन की अपेक्षा करके खूब पापाचरण करती हैं वे मनुष्य भव को खोकर नरक और तिर्यंच योनियों में जाकर जन्म धारण करती हैं और जो आत्माएँ पाप करने से पीछे हटती हैं, वे अपनी मूल पूंजी रूप मनुष्य जन्म ही को प्राप्त होती हैं। परन्तु जो आत्मा अपना वश चलते सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, ममत्व आदि का परित्याग करके अपने त्याग धर्म में वृद्धि करती जाती हैं। वे सांसारिक सुख की दृष्टि से मनुष्य भव रूपी मूल पूंजी से भी बढ़कर देव-योनि को प्राप्त होती हैं। अर्थात् स्वर्ग में जाकर वे आत्माएँ जन्म धारण करती हैं और वहाँ नाना भाँति के सुखों को भोगती हैं। निर्ग्रन्थ प्रवचन/189 do00000000000000000 Vain Education Internationals EA boo00000000000000 cwww.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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