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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 3000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000 की बूंद और कहाँ समुद्र की जन राशि! इसी प्रकार मनुष्य संबंधी काम भोगों के सामने देव संबंधी काम भोगों को समझना चाहिए। सांसारिक सुख का परम प्रकर्ष बताने के लिए यह कथन किया गया है। आत्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य भव देवभव से श्रेष्ठ है। मूल : तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायइ||३१|| छायाः तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा आयुःक्षये च्युताः। जो उपयान्ति मानुषी योनिं, स दशांगोऽभिजायते।।३१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तत्थ) यहाँ देव लोक में (जक्खा) देवता (जहाठाणं) यथास्थान (ठिच्चा) रहकर (आउक्खए) आयुष्य के क्षय होने पर वहाँ से (चुया) चव कर (माणुस) मनुष्य (जोणिं) योनि को (उ-ति) प्राप्त होता है और जहाँ जाती है वहाँ (से) वह (दसंगे) दस अंग वाला अर्थात् समृद्धिशाली (अभिजायई) होता है। भावार्थ : हे गौतम! यहाँ जो आत्माएँ शुभ कर्म करके स्वर्ग में जाती हैं, वहाँ वे अपनी आयुष्य को पूरा कर अवशेष पुण्यों से फिर वे मनुष्य योनि को प्राप्त करती हैं और पृथ्वी पर भी समृद्धिशाली होती हैं। स्मरण रहे इस कथन का यह आशय नहीं समझना चाहिए कि देव गति के बाद मनुष्य ही होता है। देव तिर्यंच भी हो सकता है और मनुष्य भी, परन्तु यहाँ उत्कृष्ट आत्माओं का प्रकरण है इसी कारण मनुष्य गति की प्राप्ति मान्य की गई है। मूल: खित्तं वत्युं हिरण्णं च, पसवो दासपोरुसं| चित्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जई||३२| छाया: क्षेत्रं वास्तु हिरण्यञ्च, पशवो दासपौरुषम्। चत्वारः कामस्कन्धाः, तत्र स उत्पद्यते।।३२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (खित्तं) क्षेत्र जमीन (वत्थु) घर वगैरह (च) और सोना चांदी (पसवो) गाय, भैंस वगैरह (दास) नौकर (पोरुसं) कुटुम्बी ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000 विशेष सन्दर्भ : एक वचन होने से इसका आशय यह है कि समृद्धि के दस अंग अन्यत्र कहे हुए हैं। उनमें से देव लोक से चव कर मृत्यु लोक में आने वाली कितनी ही आत्माओं को तो समृद्धि के नौ ही अंग प्राप्त होते हैं और किसी को आठ / इसीलिए एक वचन दिया है। निर्ग्रन्थ प्रवचन/191 0000000000000000 laln Educauon International For Personal & Private Use Only 000000000000 www.jainelibrary.orgas
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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