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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ogy 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जन, इस तरह से (चत्तारि) ये चार (कामखंधाणि) काम भोगों का समूह बहुतायत से है, (तत्थ) वहां पर (से) वह (उववज्जई) उत्पन्न होता है। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्मा गृहस्थ का यथातथ्य धर्म तथा साधुव्रत पाल कर स्वर्ग में जाती है। वह वहां से चव कर ऐसे गृहस्थ के घर जन्म लेती है, कि जहाँ (1) खुली जमीन अर्थात् बाग वगैरह (2) ढंकी जमीन अर्थात् मकान वगैरह (3) पशु और (4) नौकर चाकर एवं कुटुम्बीजन भी बहुत हैं, इस प्रकार जो चार प्रकार के काम भोगों की सामग्री है उसे समृद्धि का प्रथम अंग कहते हैं। इस अंग की जहां प्रचुरता होती है वहां स्वर्ग से आने वाली आत्मा जन्म लेती है और साथ ही में जो आगे नौ अंग कहेंगे वे भी उसे यहां मिलते हैं। मूल: मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं। अप्पायंके महापण्णे, अभिजाए जसोबले||३|| छायाः मित्रवान् ज्ञातिवान् भवति, उच्चैर्गोत्रोवीर्यवान्। अल्पातको महाप्राज्ञः अभिजातो यशस्वी बली।।३३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! स्वर्ग से आने वाला जीव (मित्तवं) मित्र वाला (नाइव) कुटुम्ब वाला (वण्णवं) क्रांति वाला (अप्पायंके) अल्प व्याधि वाला (महापण्णे) महान बुद्धिवाला (अभिजाए) विनय वाला (जसो) यश वाला (य) और (बले) बल वाला (होइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! स्वर्ग से आये हुए जीव को समृद्धि का संग मिलने के साथ ही साथ (1) वह अनेकों मित्रों वाला होता है। (2) इसी तरह कुटुम्बी जन भी उसके बहुत होते हैं। (3) वह उच्च गोत्र वाला होता है। (4) अल्प व्याधि वाला (5) रूपवान (6) विनयवान् (7) यशस्वी (8) बुद्धिशाली एवं (6) बली होता है। Jgoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - 00000000000000000odl Jain Edgaton international निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ प्रवचन/192 - For Personal & Private Use Only boo00000000000000bf Twww.jainelibrary.org, re
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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