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________________ Ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jgooo0000000000000000000000000000000000000000000000 Moo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 . अध्याय अठारह-मनो निग्रह ||श्रीभगवानुवाच| मूल : आणाणिद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए। इंगियागारसंपन्ने, से विणीए ति वुच्चई||१|| छायाः आज्ञानिर्देशकरः, गुरुणामुपपातकारकः / इंगिताकारसम्पनः, स विनीत इत्युच्यते।।१।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आणाणिद्देसकरे) जो गुरुजन एवं बड़े बूढ़ों की न्याय युक्त बातों का पालन करने वाला हो और (गुरुणं) गुरु जनों के (उववायकारए) समीप रहने वाले हो और उनकी (इंगियागारसंपन्ने) कुछेक भृकुटी आदि चेष्टाएँ एवं आकार को जानने में सम्पन्न हो (से) वही (विणीए) विनीत है (त्ति) ऐसा (वुच्चई) कहा जाता है। भावार्थ : हे गौतम! मोक्ष के साधन रूप विनम्र भावों को धारण करने वाला विनीत है, जो कि अपने बड़े बूढ़े गुरुजनों तथा आप्त पुरुषों की आज्ञा का यथायोग्य रूप से पालन करता हो, उनकी सेवा में रहकर अपना अहोभाग्य समझता हो, और उनकी प्रवृत्ति, निवृत्ति सूचक संकेत आदि चेष्टाओं तथा मुखाकृति को जानने में जो कुशल हो, वह विनीत है और इसके विपरीत जो अपना बर्ताव रखने वाला हो, अर्थात बड़े-बूढ़े, गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करता हो तथा उनकी सेवा की जो उपेक्षा करे, वह अविनीत है या धृष्ट है। मूल: अणुसासिओ न कुप्पिज्जा, खंति सेविज पंडिए। खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए|२| छायाः अनुशासितो न कुप्येत्, शान्ति सेवेत पण्डितः। क्षुद्रेः सह संसर्ग, हास्यं क्रीड़ां च वर्जयेत्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पंडिए) पंडित वही है, जो (अणुसासिओ) शिक्षा देने पर (न) नहीं (कुप्पिज्जा) क्रोध करे, और (खंति) क्षमा को (सेविज्ज) सेवन करता रहे। (खुड्डेहिं) बाल अज्ञानियों के (सह) साथ (संसग्गिं) संसर्ग (हासं) हास्य (च) और (कीड) क्रीड़ा को (बज्जए) त्यागे। भावार्थ : हे गौतम! पंडित वही है जो कि शिक्षा देने पर क्रोध न करे और क्षमा को अपना अंग बना ले तथा दुराचारी और अज्ञानियों के साथ कभी भी हंसी ठट्ठा न करे, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। ooooooooooooooooo0000000000000000 00000000000000000000000000pe ने निर्ग्रन्थ प्रवचन/193K 000000000000000oCl Jain Education International S 00000000000000000 www.jainelibrary.org, For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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