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________________ 09000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 | रचना सन्दर्भ निर्ग्रन्थ प्रवचन सार आज से लगभग 2670 वर्ष पूर्व जब भारतवर्ष अपनी पुरातन आध्यात्मिकता के मार्ग से विमुख हो गया था तब बाह्य कर्मकाण्डों की उपासना का घनघोर वातावरण बन गया था। सामान्य प्राणी के हृदय में प्रेम, दया, सहानुभूति, सद्भाव, समभाव और क्षमा आदि सात्विक वृत्तियाँ जीवन से पलायन कर चुकी थीं। ऐसे विकट समय में प्रजातंत्र की जन्मभूमि वैशाली में भगवान महावीर ने जन्म लेकर भारतीय जन-जीवन और मानवीय उत्कर्ष हेतु एक अहिंसक क्रांति का सृजन किया। भगवान महावीर ने कोरे उपदेशों से क्रांति की हो, ऐसी बात नहीं, क्योंकि उपदेश मात्र से कभी कोई सर्वोदयी क्रांति सम्भव नहीं होती। भगवान महावीर राजपुत्र थे। उन्हें संसार में प्राप्त होने वाली सभी प्रकार की सुविधाएँ सहज सम्भव थीं। ऐसे में भी उन्होंने विश्व के उद्धार हेतु समस्त सुख भोगों को तिलांजलि देते हुए अरण्य की शरण में जाकर एक अकिंचन साधन जीवन जीया और साधना के गहरे निष्कर्षों के पश्चात् जो दिव्य ज्ञान ज्योति उन्हें मिली, उससे चराचर विश्व अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिभाषित होने लगा। उन्होंने इस भूले-भटके संसार को कल्याण का प्रशस्त मार्ग दिखाते हुए मानवीय जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन की नींव रखी। भगवान महावीर के जीवन से हमें इस महत्वपूर्ण बात का पता चलता है कि उन्होंने अपने उपदेशों से जो कुछ प्रतिपादित किया वह दीर्घ अनुभव और ज्ञान की कसौटी पर कसकर किया। अतएव उनके उपदेशों में स्पष्टता, असंदिग्धता व वास्तविक सत्य है। श्रमण संस्कृति सदा से ही मनुष्य जाति की एकरूपता पर जोर देती आ रही है। इसकी दृष्टि में मानव समाज को टुकड़ों में बांट देना, किसी भी प्रकार के कृत्रिम साधनों से उसमें भेदभाव की सृष्टि करना न केवल अवास्तविक है वरन मानव समाज के विकास के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि का भेद हम अपनी सामाजिक सुविधाओं के लिए करें यह एक बात है और उसमें प्रकृति भेद 900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000ooope SN निर्ग्रन्थ प्रवचन/8 Jain Ede oooooooooot For Personal & Private Use Only Sboo0000000000000 jamelalai.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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