________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope Oo00000000000 oooooo 0000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कल्याण कर सकता है। मुनिश्री के अनुदित खरों पर से उनके शिष्य मनोहर व्याख्यानी युवामनीषी पंडित श्री छगनलाल जी म. एवं साहित्य प्रेमी गणिवर्य मुनि श्री प्यारचन्द जी म. ने इस पुस्तक को प्रस्तुत करने में बड़ा भारी योगदान दिया है। अनुवादों में रह गई कतिपय भूलों को ठीक करना उनके स्थान पर उचित संशोधन प्रदान करना और जो खर्रा है, उसे खरे ढंग से प्रस्तुत करना यह कार्य उक्त दोनों मुनिराजों ने बड़ी लगन के साथ किया है। प्रकाशन की तृतीय वृत्ति में उनके या उनके अनुसार उचित संशोधन जो भी प्रकाशनार्थ उपलब्ध हुए हैं उन्हें भी यहां यथावत देने का प्रयास बड़ी सजगता से किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक के अनुवाद की भाषा को सरल से सरल बनाने में भी अनेक विद्वानों का सहयोग प्राप्त हुआ है। हमें पूरी आशा है कि पाठकगण इसका यथोचित लाभ उठायेंगे। जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति रतलाम (म.प्र.) की ओर से उल्लेखित उक्त वक्तव्य को सराहते हुए हम पुनः इस रचना के पीछे जिन-जिन महान आत्माओं का योगदान है, उसे यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही पूज्य गुरुदेव संघसेतु, संघरत्न उपाध्याय श्री रवीन्द्र मुनि जी म. की प्रेरणा और स्वाध्याय के प्रति लगन का भी हम हृदय से अनुमोदन करते हैं, जिनके आदेशों पर यह पूर्नप्रकाशन सम्भव होकर सविज्ञ पाठकों के हाथों में सौंपा जा रहा है। इस कार्य में जिन श्रुतसेवीदानदाताओं ने सहयोग प्रदान किया है, हम उनका एवं पुस्तक को प्रकाशित करने में जिन्होंने निष्ठापूर्वक हमें योगदान दिया है हम पत्रकार भाई हकमचंद जैन 'मेघ' और उनकी टीम का भी आभार व्यक्त करते हैं जिनके श्रम-सहयोग से यह पुस्तक नव्य-भव्य रूप में प्रकाशित होकर आपके सम्मुख है। इस रचना में सम्वेत सतर्कता रखने के बावजूद भी यदि कोई तथ्यगत भूल रह गई हो तो कृपया हमें सूचित करें ताकि इस रचना के नवीन संस्करण में उन भूलों को संशोधित किया जा सके। आभार-धन्यवाद-साधुवाद। प्रकाशक मण्डल 90000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 doo00000000000000000 9. 1000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/ 7 o Jain Education International For Personal & Private Use Only 000000000000 www.jainelibrary.org