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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रकाशकीय निवेदन gooo00000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 भव्यात्माओं! "निर्ग्रन्थ प्रवचन" भगवान महावीर की वाणी है। प्रस्तुत पुस्तक को समस्त मानव समाज एवं उसके सभी वर्ग जैन-अजैन नर-नारी सभी को सर्वत्र एक जैसा जिनवाणी का लाभ मिल सके, इस दृष्टि से प्रकाशित किया गया है। प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद श्री हुकमीचंद जी म.सा. के पाटानुपाट शास्त्र विशारद बालब्रह्मचारी पूज्य प्रवर श्री मन्नालाल जी म.सा. के पट्टाधिकारी धैर्यवान शास्त्रज्ञ पूज्य श्री रूपचन्द्र जी म. की सम्प्रदाय के कविवर, सरल स्वभावी मुनिश्री हीरालाल जी म. के सुशिष्य जगद्वल्लभ जैन दिवाकर, प्रसिद्ध वक्ता पंडित रत्न मुनि श्री चौथमल जी म.सा., जैन जगत के ऐसे विद्वान रहे हैं। जिन्होंने सदैव जैन धर्मावलम्बियों एवं स्वाध्याय प्रेमियों के लिए साहित्य सृजन किया और कराया / आपने प्रस्तुत पुस्तक में जैनागमों से चुन-चुनकर कुछ गाथाओं को एक जगह संकलित करके उनका सरल-सुबोध अनुवाद करके इस रचना को अत्यंत उपयोगी बना दिया है। वास्तव में जगदवल्लभ गुरुदेव का यह जैन जगत पर ही नहीं, जैन-जैनेतर समाज के प्रति भी बड़ा भारी उपकार है। यदि इस प्रकार की आत्मार्थी रचनाएँ सरल-सुबोध ढंग से प्रकाशित होकर जैन जगत को मिल जाए तो हम समझते हैं कि प्राणीमात्र का उपकार ही होगा। जैन साहित्य की यह विशेषता है कि इस साहित्य में अन्याय-अन्धविश्वास, शोषण और दर्बद्धि की ओर प्रेरित करने वाली कोई रचना सम्मिलित नहीं होती। यहाँ जो भी गाथाएँ पाठकों को पढ़ने हेतु उपलब्ध की गई हैं उनमें सदगुण और सदविचारों पूर्वक प्रेरित होकर साधना मार्ग में गहरे उतरने का प्रबोधन है। जगद्वल्लभ जैन दिवाकर पूज्य श्री चौथमल जी म. सा. ने जैनागमों का मंथन करके कुछ ऐसी ही गाथाओं का संग्रह यहाँ प्रस्तुत किया है, जिन्हें प्रत्येक प्राणी पढ़कर अपनी आत्मा का 00000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/6 loooo0000000000000 500000000000000006 Jain Education International For Personal & Private Use Only awww.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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