________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl B00000000000000000000000000000000000 00000 समय से नहीं हो पाया था एवं इसकी वर्तमान में उपलब्धि भी नगण्य ही देखी गई थी। इसे दृष्टिगत रखते हुए मेरे मन में विचार उठा कि "मैं इस पुस्तक को पुनः अपने मूल स्वरूप में प्रकाशित करने हेतु सहयोगी श्रावकों को प्रेरित करूं।" मेरे प्रयास से यह कार्य परम गुरुभक्त स्व. श्री जय कुमार जी जैन एवं स्व. श्रीमती मोती देवी जैन परिवार के योगदान से संभव हुआ है। वर्तमान में इनके सुपुत्र श्री प्रवीण कुमार, अमित कुमार आदि जो पूज्य गुरुदेव श्री प्रेमसुख जी म. के प्रति अनन्य आस्था रखते हैं और आज भी जहां-कहीं भी मैं होता हूँ वहां पर अपनी व्यस्तताओं के बीच भी समय निकालकर दर्शन-मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं एवं सार्थक दिशा में किसी भी योगदान को करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। मैं ऐसे परम गुरुभक्त परिवार को इस रचना प्रकाशन में सहयोगी होने के नाते हृदय से साधुवाद देता हूँ, धन्यवाद देता हूँ। मेरा निर्ग्रन्थ प्रवचन के पाठकों से एक विशेष निवेदन है कि- इस रचना में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक की वाणी का संक्षिप्त संकलन प्रस्तुत किया गया है। इस रचना के अट्ठारह खण्डों में क्रमश: जीवन में पग-पग पर उपयोगी सूत्रों की ऐसी मणिमय माला पिरोई गई है जिसका प्रत्येक मणि माणिक्य अद्वितीय है, अनुकरणीय है, सर्वकालिक लाभकारी है। एक और बात इस संकलन में विशेष रूप से देखने | में आई है कि यह संकलन चतुर्विध संघ के लिए समान रूप से उपयोगी है। इसी दृष्टि से इस महत्वपूर्ण आगम सूत्र संकलन का प्रकाशन करवाना मेरा लक्ष्य था। मैं प्रसन्न हूँ कि मेरी प्रेरणा से यह संकलन प्रकाशित हो रहा है और इसके प्रकाशन से निश्चित रूप से भव्यात्माएँ लाभ लेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। इसी दृढ़ विश्वास के साथ यह प्रकाशन जिनवाणी के जिज्ञासु पाठकों के लिए गुरु प्रेमसुख धाम प्रकाशन, देहरादून द्वारा पुर्नप्रकाशित किया जा रहा है। इस प्रकाशन पर मैं हृदय से प्रसन्नता व्यक्त करता हूँ। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ सभी सहयोगियों का आभार, धन्यवाद, साधुवाद। Agoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 000000000 100000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/5 50000000000000000 S00000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org