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________________ 30000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oor Poo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अपनी स्त्री के साथ भी कम से कम अष्टमी, चतुर्दशी, एकादशी, बीज, पंचमी, अमावस्या, पूर्णिमा के दिन का संभोग त्याग करना। इच्छापरिमाणे- खेत, कुएं, सोना, चांदी, धान्य, पशु आदि सम्पत्ति का कम से कम जितनी इच्छा हो उतनी ही परिमाण करना। ताकि परिमाण से अधिक सम्पत्ति प्राप्त करने की लालसा रूक जाए। यह भी गृहस्थ का एक धर्म है। गृहस्थ को अपने छठे धर्म के अनुसार, दिसिव्वय-चारों दिशा और ऊँची नीची दिशाओं में गमन करने का नियम कर लेना। सातवें में उपभोग-परिभोग परिमाण-खाने पीने की वस्तुओं की ओर पहनने की वस्तुओं की सीमा बांधना ऐसा करने से कभी वह तृष्णा के साथ भी विजय प्राप्त कर लेता है। फिर उससे मुक्ति भी निकट आ जाती है। इसका विशेष विवरण यों हैं: - मूल: इंगाली, वण, साड़ी, भाडी फोडी सुवज्जए कम्म। वाणिज्जं चेव यदंत- लक्खरसकेसविसविसय||२|| छाया: अंगार-वन-शाटी, भाटि-स्फोटिः सुवर्जयेत् कर्म। वाणिज्यं चैव च दन्त-लाक्षा-रस-केश-विष-विषयम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इंगाली) कोयले पड़वाने का (वण) वन कटवाने का (साड़ी) गाडियें बनाकर बेचने का (भाडी) गाड़ी, घोड़े, बैल, आदि से भाड़ा कमाने का (फोड़ी) खान आदि खुदवाने का (कम्म) कर्म गृहस्थ को (सुवज्जए) परित्याग कर देना चाहिए। (य) और (दंत) हाथी दांत का (लक्ख) लाख का (रस) मधु आदि का (केस) मुर्गों कबूतरों आदि के बेचने का (विसविसयं) ज़हर और शस्त्रों आदि का (वाणिज्ज) व्यापार (चेव) यह भी निश्चय रूप से गृहस्थों को छोड़ देना चाहिए। भावार्थ : हे आर्य! गृहस्थ धर्म पालन करने वालों को कोल से तैयार करवा कर बेचने का या कुम्हार, लुहार, भड़भूजे आदि के काम जिनमें महान् अग्नि का आरंभ होता है, नहीं करना चाहिए। वन, झाड़ी कटवाने का ठेका वगैरह लेने का इक्के, गाड़ी वगैरह तैयार करवा कर बेचने का, बैल, घोड़े, ऊँट आदि को भाड़े से फिराने का, या इक्के, गाड़ी, वगैरह भाड़े फिरा करके आजीविका कमाने का और खाने आदि को खुदवाने का कर्म आजीवन के लिए छोड़ देना चाहिए और व्यापार संबंध में हाथी-दाँत, चमड़े आदि का, लाख का, मदिरा शहद आदि का, कबूतर, बटेर, तोते, कुक्कुट, बकरे आदि का, संखिया, वच्छनाग आदि जिनके खाने से मनुष्य मर जाते हैं ऐसे जहरीले पदार्थों का, या तलवार, gooooooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्गन्थ प्रवचन/80 Jain 500000000ood 00000
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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