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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poo000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000 शीतोदक–सचितजल को (न) नहीं पीवे, औरों को भी (न) नहीं (पियावए) पिलावे; (जहा) जैसे (सुनिसिय) खूब अच्छी तरह तीक्ष्ण (सत्थं) शस्त्र होता है, उसी तरह (अगणि) अग्नि है (तं) उसको स्वयं (न) नहीं (जले) जलावे, औरों से भी (न) न (जलवाए) (स) वही (भिक्खु) साधु है। भावार्थ : हे गौतम! सर्वथा हिंसा से जो बचना चाहता है वह न स्वयं पृथ्वी को खोदे और न औरों से खुदवावे। इसी तरह न सचित्त (जिस में जीव हो उस) जल को खुद पीवें और न औरों को पिलावे। उसी तरह न अग्नि को भी स्वयं प्रदीप्त करे और न औरों ही से प्रदीप्त करवावे बस, वही साधु है। मुल: अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। बीयाणिसया विवज्जयंतो, सच्चित्तंनाहारएजेसभिक्खू||0|| छायाः अनिलेन न बीजयेत् न बीजायेत, हरितानि न न च्छिंदयेन्नच्छेदयेत्। बीजानि सदा विवर्जयन्, सचित्तं नाहरेद् यः स भिक्षुः।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (अनिलेण) वायु के हेतु पंखे को (न) नहीं (वीए) चलाता है और (न) न औरों से ही (वीयावए) चलवाता है (हरियाणि) वनस्पतियों को स्वतः (न) नहीं (छिंदे) छेदता और (न) न औरों ही से (छिंदावए) छिदवाता है, (बीयाणि) बीजो को छेदना (सया) सदा (विवज्जयंतो) छोड़ता हुआ (सच्चितं) सचित पदार्थ को जो (न) न (आहारए) खाता है। (स) वही (भिक्खू) साधु है। भावार्थ : हे गौतम! जिसने इन्द्रिय-जन्य सुखों की ओर से अपना मुँह मोड़ लिया है, वह कभी भी हवा के लिये पंखों का न तो स्वतः प्रयोग करता है और न औरों से उसका प्रयोग करवाता है और पान, फल, फूल आदि वनस्पतियों का भक्षण छोड़ता हुआ, सचित्त पदार्थों का कभी आहार नहीं करता, वही साधु है। तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी प्रकार का हिंसाजनक आरंभ नहीं करते। मूल : महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिण्डरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो||११|| छायाः मधुकरसमा बुद्धाः, ये भवन्त्यनिश्रिताः / नानापिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधवः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (महुकारसमा) जिस प्रकार थोड़ा थोड़ा रस लेकर भ्रमर जीवन बिताते हैं, ऐसे ही (जे) जो (दंता) इन्द्रियों को lgoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOOOO 10000000 00000 0000000000000000000000000000000 00000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/103 00000000000000 Jan Education International 00000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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