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________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 18000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीतते हुए (नाणापिंडरया) नाना प्रकार के आहार में उद्वेग रहितरत रहने वाले हैं ऐसे (बुद्धा) तत्त्वज्ञ (अणिस्सिया) नेश्राय रहित (भवंति) होते हैं (तेण) इसी से उन्हें (साहुणो) साधु (वुच्चंति) कहते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार भ्रमर फूलों पर से थोड़ा थोड़ा रस लेकर अपना जीवन बिताता है। इस तरह जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए तीखे कडवे, मधुर आदि नाना प्रकार के भोजनों में उद्वेग रहित होते हैं तथा जो समय पर जैसा भी निर्दोष भोजन मिला, उसी को खाकर आनंदमय संयमी जीवन को निश्चित होकर बिताते हैं, उन्हीं को हे गौतम! साधु कहते हैं। मूल : जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठ||२|| छायाः यो न वन्देत् न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत्। एवमन्वेषमानस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो कोई गृहस्थ साधु को (न) नहीं (वंदे) वन्दना करता (से) वह साधु उस गृहस्थ पर (न) न (कुप्पे) क्रोध करें और (वंदिओ) वंदना करने पर (न) न (समुक्कसे) उत्कर्षता ही दिखावे (एवं) इस प्रकार (अन्नेसमाणस्स) गवेषणा करने वालों की (सामण्णं) श्रामण्य अर्थात् साधुता (अणुचिट्ठइ) बनी रहती है। ____भावार्थ : हे गौतम! साधु को कोई वन्दना करे या न करे तो उस जन या गृहस्थ पर वह साधु क्रोधित न हो। इस प्रकार चारित्र को दूषित करने वाले दूषणों को देखता हुआ उनसे बाल बाल बचता रहे उसी का चारित्र अखण्ड रहता है। मूल : पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी। सुहमे उ सया अलूसए, णो कुज्झे णो माणि माहणे।।१३।। छाया : प्रज्ञा समाप्तः सदा जयेत्, समतया धर्म मुदाहरे न्मुनिः। सूक्ष्मे तु अलूषकः, न क्रुध्येन्न मानी माहन्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मुणी) वह साधु (पण्णसमत्ते) समग्र प्रज्ञा करके सहित तथा प्रश्न करने पर उत्तर देने में समर्थ (सया) हमेशा (जए) कषायादि को जीते (समताधम्ममुदाहरे) समभाव से धर्म को कहता हो, और (सया) सदैव (सुहमे) सूक्ष्म चारित्र में (अलूसए) अविराधक हो, उन्हें ताड़ने पर (णो) नहीं (कुज्झे) क्रोधित हो एवं सत्कार करने पर (णो) नहीं (माणि) मानी हो, वही (माहणे) साधु है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000060 निर्ग्रन्थ प्रवचन/104 000000000ood ooooooooooo www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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