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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे जम्बू! (सो) संयम की रक्षा के लिए रखे हुए वस्त्र, पात्र वगैरह हैं, उनको (परिग्गहो) परिग्रह (ताइणा) त्राता (नायपुत्तेण) महावीर (न) नहीं (वुत्तो) कहा है, किन्तु उन वस्तुओं पर (मुच्छा) मोह रखना नहीं (परिग्गहो) परिग्रह (वुत्तो) कहा जाता है (इइ) इस प्रकार (महेसिणा) तीर्थंकरों ने (वृत्तं) कहा है। भावार्थ : हे जम्बू! संयम को पालने के लिए जो वस्त्र, पात्र, वगैरह रखे जाते हैं, उनको तीर्थंकरों ने परिग्रह नहीं कहा है। हाँ यदि वस्त्र, पात्र आदि पर ममत्व भाव हो, या वस्त्र पात्र ही क्यों, अपने शरीर पर देखो न, इस पर भी ममत्व यदि हुआ कि अवश्य वह परिग्रह के दोष से दूषित बन जाता है और वह परिग्रह का दोष चारित्र के गुणों को नष्ट करने में सहायक होता है। मूल : एयं च दोसं दणं, नायपुत्चेणं भासियं। सवाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयण||६|| छायाः एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् / सर्वाहारं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम्।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (च) और (एयं) इस (दोस) दोस को (दळूणं) देखकर (नायपुत्तेण) तीर्थंकर श्रमण भगवान श्री महावीर ने (भासिय) कहा है। (निग्गंथा) निर्ग्रन्थ जो है वे (सव्वाहार) सब प्रकार के आहार को (राइभोयणं) रात्रि के भोजन अर्थात् रात्रि में (नो) नहीं (भुंजंति) भोगते हैं। भावार्थ : हे गौतम! रात्रि के समय भोजन करने में कई तरह के जीव भी खाने में आ जाते हैं। अतः उन जीवों की, भोजन करने वालों से हिंसा हो जाती है और वे फिर कई तरह के रोग भी पैदा करते हैं। अतः रात्रि भोजन करने में ऐसा दोष देखकर वीतरागों ने उपदेश किया है कि जो निर्ग्रन्थ होते हैं। वे सब प्रकार से खाने पीने की कोई भी वस्तु का रात्रि में सेवन नहीं करते हैं। मूलः पुढविं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए। अगणिसत्त्यं जहासुनिसियं, नजले नजलावएजेस भिक्खू।९।। छायाः पृथिवीं न खनेन्न खानयेत, शीतोदकं न पिवेन्न पाययेत्। अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितम्, तंन ज्वलेन्नज्वालयेत्यः स भिक्षुः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (पुढविं) पृथ्वी को स्वयं (न) नहीं (खणे) खोदे औरों से भी (न) न (खणावए) खुदवाए (सीओदगं) gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/102 poo000000000000ood Jain Ecdication international For Personal & Private Use Only 00000000000 www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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