________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot DOOOOOOOOO 0000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000obf अध्याय छह - सम्यक् निरुपण ॥श्रीभगवानुवाच|| मूल : अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्वं तत्तं, इअ सम्मत्वं मए गहिय||१|| छायाः अर्हन्तो महद्देवाः यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः / जिन प्रज्ञप्तं तत्त्वं, इति सम्यक्त्वं मया गृहीतम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीवज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (अरिहंतो) अरिहंत (महदेवो) बड़े देव (सुसाहुणो) सुसाधु (गुरुणो) गुरु और (जिणापण्णंत्त) जिनराज द्वारा प्ररूपित (तत्तं) तत्व को मानना यही सम्यक्त्व है (इअ) इस (सम्मत्तं) सम्यक्त्व को (मए) मैंने (गहिय) ग्रहण किया ऐसी जिसकी बुद्धि है वही सम्यक्त्व धारी है। भावार्थ : हे गौतम! कर्म रूप शत्रुओं को नष्ट करके जिन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो अष्टादश दोषों से रहित हैं वही मेरे देव हैं। पांच महाव्रतों को यथा योग्य पालन करते हों वह मेरे गुरु हैं और वीतराग के कहे हुए तत्त्व ही मेरा धर्म है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा को सम्यकत्व कहते हैं। इस प्रकार के सम्यकत्व को जिसने हृदयंगम कर लिया है, वही सम्यक्त्व धारी है। मूलः परमत्यसंथवो वा सुदिठ्ठपरमत्यसेवणा यावि। वावण्णकुदंसणवज्जणा, य सम्मत्तसद्दहणा||२ छायाः परमार्थसंस्तवः सुदृष्टपरमार्थसेवनं वाऽपि। व्यापन्नकुदर्शनवर्जनं च सम्यक्त्वश्रद्धानम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परमत्थसंथवो) तात्विक पदार्थ का चिन्तवन करना (वा) और (सुदिट्ठपरमत्थसेवणा) अच्छी तरह से देखे हैं तात्विक अर्थ जिन्होंने उनकी सेवा शुश्रूषा करना (य) और (अवि) समुच्चय अर्थ में (वावण्ण कुंदसणवज्जणाए) नष्ट हो गया है सम्यक्त्व दर्शन जिसका और जो दोषों से सहित है, दर्शन जिसका उसकी संगति परित्यागना, यही (सम्मत्तसद्दहणा) सम्यक्त्व की श्रद्धना है। भावार्थ : हे गौतम! फिर जो बारंबार तात्विक पदार्थ का चिन्तवन करता है और जो अच्छी तरह से तात्विक अर्थ पर पहुंच गये हैं, उनकी यथायोग्य सेवा शुश्रूषा करता हो, तथा जो सम्यक्त्व दर्शन से प्रतित हो ago0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/72 3000000000000000 30000000000000006 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org