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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo0000000000000000000000000000 Bo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000 तथा सर्व प्राणी दिया मात्र क्या (तसेसु) त्रस (अ) और (थावरे सु) स्थावर में (समो) समान भाव है जिसका। भावार्थ : हे गौतम! महापुरुष वही है जिसने ममता, अहंकार, संग, बड़प्पन आदि सभी का साथ एकान्त रूप से छोड़ दिया है और जो प्राणीमात्र पर फिर चाहे वह कीड़े-मकोड़े के रूप में हो, या हाथी के रूप में, सभी के ऊपर समभाव रखता है। वही सच्चा अहिंसक है। मूल : लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणओ||१३|| छाया: लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा। समो निन्दाप्रशंसासु, समो मानापमानयोः / / 13 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! महापुरुष वही है जो (लाभालाभे) प्राप्ति-अप्राप्ति में (सुहे) सुख में (दुक्खे) दुःख में (जीविए) जीवन (मरणे) मरण में (समो) समान भाव रखता है। तथा (निंदापसंसासु) निंदा और प्रशंसा में एवं (माणावमाणओ) मान अपमान में (समो) समान भाव रखता है। भावार्थ : हे गौतम! मानव देहधारियों में उत्तम पुरुष वही है, जो इच्छित अर्थ की प्राप्ति-अप्राप्ति में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में तथा निन्दा और स्तुति में, और मान-अपमान में सदा समान भाव रखता है। मूल : अणिस्सिओ इह लोए, परलोए अणिरिसओ। वासीचंदणकप्पो अ, असणो अणसणो वहा||१४| छायाः अनिश्रित इह लोके, परलोकेऽनिश्चितः। ___वासी चन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इह) इस (लोए) लोक में (अणिस्सिओ) अनैश्रित (परलोए) परलोक में (अणिस्सिओ) अनैश्रित (अ) और किसी के द्वारा (वासीचंदणकप्पो) वसूले से छेदने पर या चंदन का विलेपन करने पर और (असणे) भोजन खाने पर (तहा) तथा (अणसणे) अनशन व्रत, सभी में समान भाव रखता हो, वही महापुरुष है। भावार्थ : हे गौतम! मोक्षाधिकारी वे ही मनुष्य हैं, जिन्हें इस लोक के वैभवों और स्वर्गीय सुखों की चाह नहीं होती है। कोई उन्हें वसूले (शस्त्र विशेष) से छेदें या कोई उन पर चन्दन का विलेपन करें, उन्हें भोजन मिले या उन्हें भूखों मरना पड़े, हर स्थिति में सदा सर्वदा समभाव से रहते हैं। 00000000000000000000000000000000000000000000000006 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/71 10000000000000000000 Jain Bducation International For Personal & Private Use Only 5000000000ooooooo cwww.jainelibrary.org/
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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