________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oop 00000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे (भिक्खुवो) भिक्षुकों! (पुरा) पहले (अभविंसु) हुए जो (वि) और (आएसा वि) भविष्यत् में होंगे, वे सब (सुव्वता) सुव्रती होने से जिन (भवंति) होते हैं। (ते) वे सब जिन (एयाइं) इन (गुणाई) गुणों को एकसे (आहु) कहते हैं। क्योंकि (कासवस्स) महावीर भगवान के (अणुधम्मचारिणो) वे धर्मानुचारी हैं। भावार्थ : हे भिक्षको! जो बीते हए काल में तीर्थंकर हए हैं, उनके और भविष्यत में होंगे उन सभी तीर्थंकरों के कथनों में अन्तर नहीं होता है। सभी का मन्तव्य एक ही सा है क्योंकि वे सुव्रती होने से राग द्वेष रहित जो जिनपद है, उसको प्राप्त कर लेते हैं और सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। इसी से ऋषभदेव और भगवान महावीर आदि सभी "ज्ञान दर्शन चारित्र से मुक्ति होती है," ऐसा एक ही सा कथन करते हैं। ||श्रीऋषभोवाच| मूल: तिविहेण वि पाणमा हणे, आयहिते अणियाण संबुडे। एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अणागयावरे||११ छायाः त्रिविधेनापि प्रणान् मा हन्यात्, आत्महितोऽनिदानः संवृतः। एवं सिद्धा अनन्तशः, संप्रति ये अनागत अपरे।।११।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (जे) जो (आयहिते) आत्म हित के लिए (तिविहेण वि) मन, वचन, कर्म से (पाण) प्राणों को (मा हणे) नहीं हनते (अणियाण) निदान रहित (संवुडे) इन्द्रियों को गोपे (एवं) इस प्रकार का जीवन करने से (अणंतसो) अनंत (सिद्धा) मोक्ष गये हैं और (सम्पइ) वर्तमान में जा रहे हैं (अणागयावरे) और अनागत अर्थात् भविष्यत् में जावेंगे। _ भावार्थ : हे पुत्रों! जो आत्महित के लिए एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत प्राणी मात्र की मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करते हैं और अपनी इन्द्रियों को विषय वासना की ओर घूमने नहीं देते हैं, बस इसी व्रत के पालन करते रहने से भूत काल में अनंत जीव मोक्ष पहुंचे हैं और वर्तमान में जा रहे हैं। इसी तरह भविष्यत् काल में भी जावेंगे। ||श्रीभगवानुवाच।। मूलः संबुज्झहा जंतवो माणुसतं, दर्छ भयं वालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिएवलोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेइ||२|| 50000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g So00000000000000000000000 JainEdline ternational Jo0000000000000000 निम्रन्थ प्रवचन/154 Neeraorg 00000000000000000