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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हैं प्रत्युत कर्मनाश के बदले उनके गाढ़े कर्मों का बंध होता है। क्योंकि खून से भीगा हुआ कपड़ा खून ही के द्वारा कभी साफ नहीं होता है। बुद्धिमान् तो वही है, जो हिंसादि के द्वारा बंधे हुए कर्मों को अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य आदि के द्वारा नष्ट करते हैं और वे लोभ ओर मद से रहित होकर संतोषी हो जाते हैं। वे फिर भविष्यत् में नवीन पाप कर्म नहीं करते हैं। यहाँ 'लोभ' शब्द राग का सूचक और 'मद' द्वेष का सूचक है। अतएव लोभ या माया शब्द का अर्थ राग द्वेष समझना चाहिए। मूलः डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सब्बलोए। उल्लेहती लोगमिणंमहतं, बुद्धेऽपमचेसुपरिव्वएज्जा||१९|| छायाः डिभश्च प्राणो वृद्धश्च प्राणः, स आत्मवत् पश्यति सर्वलोकान्। उत्प्रेक्षते लोकमिमं महान्तम्, बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (डहरे) छोटे (पाणे) प्राणी (य) और (बुड्ढे) बड़े (पाणे) प्राणी (ते) उन सभी को (सव्वलोए) सर्व लोक में (आत्तउ) आत्मवत् (पासइ) जो देखता है (इणं) इस (लोग) लोक को (महंत) बड़ा (उव्वेहती) देखता है (बुद्ध) वह तत्वज्ञ (अपमत्तेसु) आलस्य रहित संयम में (परिव्वएज्जा) गमन करता है। भावार्थ : हे गौतम! चींटियाँ, मकोड़े, कंथवे आदि छोटे छोटे प्राणी और गाय, भैंस, हाथी बकरा आदि बड़े-बड़े प्राणी आदि सभी को अपने आत्मा के समान जो समझता है और महान लोक को चराचर जीव के जन्म-मरण से अशाश्वत देखकर जो बुद्धिमान मनुष्य संयम में रत रहता है। वही मोक्ष में पहुंचने का अधिकारी है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1583 18000000000000000000 For Personal & Privateuse Orissoor 100000000000000KNarvard
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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