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________________ Dooooooooooooooooooooooooo00000000000000000000000000000000oogl 10000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! क्रोध ऐसा बुरा है, कि वह परस्पर की प्रीति को क्षण भर में नष्ट कर देता है। मान विनम्र भाव को भी अपनी ओर झांकने तक भी नहीं देता। कपट से मित्रता का भंग हो जाता है और लोभ सभी गुणों का नाश कर देता है। अतः क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों ही दुर्गुणों से अपनी आत्मा को सदा सर्वदा बचाते रहना चाहिए। मूल : उवसमेण हणे कोहं, माणंमद्दवया जिणे। मायंचज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे||१०|| छाया: उपशमेन हन्यात् क्रोधं, मानं मार्दवेन जयेत्। माया चार्जवभावेन, लोभं सन्तोषतो जयेत्।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उवसमेण) उपशान्त "क्षमा" से (कोह) क्रोध का (हणे) नाश करे (मद्दवया) नम्रता से (माणं) मान को (जिणे) जीते (मज्जव) सरल (भावेण) भावना से (माया) कपट को और (संतोसओ) संतोष से (लोभ) लोभ को (जिणे) पराजित करना चाहिए। - भावार्थ : हे आर्य! इस क्रोध रूप चाण्डाल को क्षमा से दूर भगाओ और विनम्र भावों से इस मान का मद नाश करो। इसी प्रकार सरलता से कपट को और संतोष से लोभ को पराजित करो। तभी वह मोक्ष प्राप्त होगा जहाँ पर कि गये बाद, वापिस दुःखों में आने का काम नहीं। मूल: असंख्यं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं| एअं वियाणाहि जणे पमचे, कं नु विहिंसा अजया गहिंति|१|| छायाः असंस्कृतं जीवितं मा प्रमादीः।, जरोपनीतस्य खलु नास्ति त्राणम्। एवं विजानीति जनाः प्रमत्ताः, किं नु विहिस्त्रा अयता गमिष्यन्ति।।११।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीविय) यह जीवन (असंख्य) असंस्कृत है। अतः (मा पमायए) प्रमाद मत करो (हु) क्योंकि (जरोवणीयस्स) वृद्धावस्था वाले पुरुष को किसी की (ताणं) शरण (नत्थि) नहीं है (एअं) ऐसा तू (वियाणाहि) हिंसा करने वाले (अजया) अजितेन्द्रिय (जणे) मनुष्य हैं, वे (नु) बेचारे (क) किसकी शरण (गहिति) ग्रहण करेंगे। भावार्थ : हे गौतम! इस मानव जीवन के टूट जाने पर न तो पुनः इसकी संधि हो सकती है, और न यह बढ़ ही सकता है। अतः धर्माचरण करने में प्रमाद मत कर / यदि कोई वृद्धावस्था में किसी की शरण प्राप्त करनाचाहे तो इस में भी वह असफल होता है। भला फिर जो प्रमादी और हिंसा करने वाले अजातेन्द्रिय मनुष्य हैं, वे परलोक में किसकी शरण ग्रहण करेंगे? अर्थात् वहां के होने वाले दुःखों से उन्हें कौन छुड़ा सकेगा? कोई भी बचाने वाला नहीं है। lgoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope निर्ग्रन्थ प्रवचन/142 Vdoo000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 00000000000006 www.jainelibrary org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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