________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000oooooooooooooood do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 छायाः पृथिवी शालिर्यवाश्चैव, हिरण्यं पशुभिःसह। प्रतिपूर्णं नालमेकस्मै, इति विदित्वा तपश्चरेत्।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (साली) शालि (जव) सहित (चेव) और (पसुभिस्सह) पशुओं के साथ (हरिण्ण) सोने वाली (पडिपुण्णं) सम्पूर्ण भरी हुई (पुढवी) पृथ्वी (एगस्स) एक की तृष्णा को बुझाने के लिए (नालं) समर्थवान् नहीं है। (इइ) इस तरह (विज्जा) जानकर (तव) तप रूप मार्ग में (चरे) विचरण करना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! शालि, सोना, चांदी और पशुओं से परिपूर्ण पृथ्वी भी किसी एक मनुष्य की इच्छा को तृप्त करने में समर्थ नहीं हैं ऐसा जानकर तप रूप मार्ग में घूमते हुए लोभदशा पर विजय प्राप्त करना चाहिए। इसी से आत्मा की तृप्ति होती है। मूले: अहे वयह कोहिणं, माणेणं अहमा गइ। माया गइपडिगघाओ, लोहाओ दुहओभय|६| छायाः अधोव्रजति क्रोधेन, मानेनाधमा गतिः। __मायया सुगति प्रतिघातः, लोभाद् द्विधाभयम्।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! आत्मा (कोहेणं) क्रोध से (अहे) अधोगति में (वयइ) जाता है (माणेणं) मान से उसको (अहमा) अधम (गई) गति मिलती है (माया) कपट से (गइपडिग्घाओ) अच्छी गति का प्रतिघात होता है। (लोहाओ) लोभ से (दुहओ) दोनों भव संबंधी (भये) भय प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! जब आत्मा क्रोध करता है, तो उस क्रोध से उसे नरक आदि स्थानों की प्राप्ति होती है। मान करने से वह अधम गति को प्राप्त करता है। माया करने से पुरुषत्व या देवगति आदि अच्छी गति मिलने में रूकावट होती है और लोभ से जीव इस भव एवं पर भव संबंधी भय को प्राप्त होता है। मूल: कोहो पीइंपणासेइ, माणे विणयनासणो। माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सबविणासणो||९|| छायाः क्रोधः प्रीति प्रणश्यति, मानो विनयनाशनः। _माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कोहो) क्रोध (पीई) प्रीति को (पणासेइ) नाश करता है (माणो) मान (विणय) विनय को (नासणो) नाश करने वाला है। (माया) कपट (मित्ताणि) मित्रता को (नासेइ) नष्ट करता है और (लोभो) लोभ (सव्व) सारे सद्गुणों का (विणसणो) विनाशक हैं। 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000oope नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/141 1000000000000ooda Jain Education International 500000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only