________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000061 स्कंध से (साहा) शाखा (समुर्विति) उत्पन्न होती है और (साहप्पसाहा) शाखा प्रतिशाखा से (पत्ता) पत्ते (विरुहंति) पैदा होते हैं। (तओ) उसके बाद (से) वह वृक्ष (पुप्फ) फूलदार (च) और (फल) फलदार (अ) और (रसो) रस वाला बनता है। भावार्थ : हे गौतम! वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है। तदन्तर स्कन्ध से शाखा, टहनियाँ और उसके बाद पत्ते उत्पन्न होते हैं। अन्त में वह वृक्ष फूलदार फलदार व रस वाला होता है। मूल : एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्सुिअं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छ||७|| छायाः एवं धर्मस्य विनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः / येन कीर्ति श्रुतं शीघ्र निश्शेष चाभिगच्छति।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इसी प्रकार (धम्मस्स) धर्म की (परमो) मुख्य (मूलं) जड़ (विणओ) विनय है। फिर उससे क्रमशः आगे (से) वह (मुक्खो ) मुक्ति है। इसलिये पहले विनय आदरणीय है। (जेण) जिससे वह (कित्ति) कीर्ति को। (च) और (नीसेस) सम्पूर्ण (सुअं) श्रुतज्ञान को (सिग्घं) शीघ्र (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है। 12 भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ के द्वारा क्रमपूर्वक रस वाला होता है। उसी प्रकार धर्म की जड़ विनय है। विनय के पश्चात् ही स्वर्ग, शुक्लध्यान, क्षपक श्रेणी आदि उत्तरोत्तर गुणों के साथ रसवान वृक्ष के समान आत्मा मुक्ति रूपी रस को प्राप्त कर लेती है। जब मूल ही नहीं है तो शाखा पत्ते फूल फल रस कहाँ से होंगे। ऐसे ही जब विनय धर्म रूप मूल ही नहीं हो तो मुक्ति का मिलना महान कठिन है। हे गौतम! सबों के लिए विनय आदरणीय है। विनय से कीर्ति फैलती है और विनयवान शीघ्र ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है। मूल: अणुसिठं पि बहुविहं, मिच्छ दिठ्यिा जे नरा अबुद्धिया। बदनिकाइयकम्मा, सुगंति धम्मन परं करेंतिllll छायाः अनुशिष्टमपि बहुविधं, मिथ्यादृष्टयो ये नरा अबुद्धयः। बद्धनिकाचितकर्माणः श्रृण्वन्ति धर्मं न परं कुर्वन्ति।।८i अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बहुविहं) अनेक प्रकार से (धम्म) धर्म को (अणुसिटुं पि) शिक्षित गुरु के द्वारा सीखने पर भी (बद्धनिकाइयकम्मा) बंधे हैं निकाचित कर्म जिसके ऐसे (अबुद्धिया) बुद्धि रहित igoooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/49 500000000000000 Jain Education International 00000000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only