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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - मूल : माणुस्सं विग्गृहं लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवजंति, तवं खंतिमहिंसयं||४|| छायाः मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा श्रुति धर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंस्रताम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (माणुस्स) मनुष्य के (विग्गह) शरीर को (लथु) प्राप्त कर (धम्मस्स) धर्म का (सुई) श्रवण करना (दुल्लहा) दुर्लभ है। (ज) जिसको (सोच्चा) सुनने से (तवं) तप करने की (खंति महिंसयं) तथा क्षमा और अहिंसा के पालन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। भावार्थ : हे गौतम! दुर्लभ मानव देह को पा भी लिया तो भी धार्मिक तत्व का श्रवण करना महान दुर्लभ है। जिस के सुनने से तप, क्षमा, अहिंसा आदि करने की प्रबल इच्छा जाग उठती है। मूल: धम्मो मंगलमुक्किट्ठें, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो||५|| छायाः धर्मो मंगलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमस्तपः देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहिंसा) जीव दया (संयम) यत्ना और (तवो) तप रूप (धम्मो) धर्म (उक्किट्ठ) सब से अधिक (मंगल) मंगलमय है। इस प्रकार के (धम्मे) धर्म में (जस्स) जिसका (सया) हमेशा (मणो) मन है, (तं) उसको (देवा वि) देवता भी (नमसंति) नमस्कार करते हैं। भावार्थ : हे गौतम! किचिन्मात्र भी जिसमें हिंसा नहीं है, ऐसी अहिंसा, संयम और मन वचन काया के अशुभ योगों का घातक तथा पूर्वकृत पापों का नाश करने में अग्रसर ऐसा तप, ये ही जगत में प्रधान और मंगलमय धर्म के अंग हैं। बस एकमात्र इसी धर्म को हृदयंगम करने वाला मानव देवों से भी सदैव पूजित होता है तो फिर मनुष्यों द्वारा वह पूज्य दृष्टि से देखा जाए इसमें आश्चर्य ही क्या है? मूलः मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा। साहप्पसाहाविरुहंतिपत्ता, तओसे पुफंचफलं रसो||६|| छायाः मूलात्स्कन्धप्रभवो द्रुमस्य, स्कन्धात् पश्चात् समुपयान्ति शाखाः / __ शाखाप्रशाखाम्योविरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुमस्स) वृक्ष के (मूलाउ) मूल से (खंधप्पभवो) स्कन्ध अर्थात् “पीड" पैदा होता है (पच्छा) पश्चात् (खंधाउ) Jgooooooooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops 00000 000000000000000000000000000000000000000 Nनिर्ग्रन्थ प्रवचन/48 500000000000000 Sboooooo00000000006 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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