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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops 00000000000000ok N000000000000000000000000000000000 YOOOC छायाः बाला क्रीडा च मन्दा च, बला प्रज्ञा च हायनी। प्रपञ्चा प्राग्भारा च मुन्मुखी शायिनी तथा।। 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! मनुष्य की दश अवस्थाएँ हैं। प्रथम (बाला) बाल्यावस्था (य) और दूसरी (किड्डा) क्रीड़ावस्था (मंदा) तीसरी मन्दावस्था (बला) चौथी बलावस्था (य) और (पन्ना) पांचवीं प्रज्ञावस्था छठी (हायणी) हायनी अवस्था तथा सातवीं (पवंचा) प्रपंचावस्था (य) और आठवीं (पब्भारा) प्राग्भारावस्था। नौवीं (मुमुही) मुम्मुखी अवस्था (तहा) तथा मनुष्य की दशवी अवस्था (सायणी) शायनी अवस्था होती है। भावार्थ : हे गौतम! जिस समय मनुष्य की जितनी आयु हो उतनी आयु का दश भागों में बांटने से दश अवस्थाएँ होती है। जैसे सौ वर्ष की आयु हो तो दश वर्षों की एक अवस्था, यों दश दश वर्षों की दश अवस्थाएँ हैं। प्रथम बाल्यावस्था है कि जिस में खाना, पीना, कमाना, रूप आदि सुख दुःख का प्रायः भान नहीं रहता है। दश वर्ष से बीस वर्ष तक खेलने कूदने की प्राय धुन रहती है, इसलिये दूसरी अवस्था का नाम क्रीड़ावस्था है। बीस वर्ष से तीस वर्ष तक अपने गृह में जो काम भोगों की सामग्री जुटी हुई है उसी को भोगते रहना और नवीन अर्थ सम्पादन करने में प्रायः बुद्धि की मन्दता रहती है, इसी से तीसरी मन्दावस्था है। तीस से चालीस वर्ष पर्यंत यदि वह स्वस्थ रहे तो उस हालत में वह कुछ बली दिखलाई देता है, इसी से चौथी बलावस्था कही गयी है। चालीस से पचास वर्ष तक इच्छित अर्थ का सम्पादन करने के लिये तथा कुटुम्ब वृद्धि के लिए खूब बुद्धि का प्रयोग करता है, इसी से पांचवीं प्रज्ञावस्था है। 50 से 60 वर्ष तक जिस में इन्द्रिय जन्य विषय ग्रहण करने में कुछ हीनता आ जाती है इसीलिए छठी हायनी अवस्था है। साठ से सत्तर वर्ष तक बार बार कफ निकलने, थूकने और खांसने का प्रपंच बढ़ जाता है। इसी से सातवीं प्रपंचावस्था है। शरीर पर सलवट पढ़ जाते हैं और शरीर भी कुछ झुक जाता है इसी से सत्तर से अस्सी वर्ष तक की अवस्था को प्राग्भार अवस्था कहते हैं। नौवीं अस्सी से नब्बे वर्ष तक मुम्मुखी अवस्था में जीव जरारूप राक्षसी से पूर्ण रूप से घिर जाता है। या तो इसी अवस्था में परलोकवासी बन बैठता है और यदि जीवित रहा तो एक मृतक के समान ही होता है। नब्बे से सौ वर्ष तक प्रायः दिन रात सोते रहना ही अच्छा लगता है। इसलिए दशवीं शायनी अवस्था कही जाती है। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/47 500000000000000ood Jain Education International 0000000000000 000000067 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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