________________ goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 0000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000opoo0000000000000000000000 औदारिक शरीर को छोड़कर यक्ष देवताओं के सदृश देवलोक को प्राप्त होता है। मूल : दीहाउया इड्ढिमंता, समिद्धा कामरूविणो। अहुणोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पमा|lll छायाः दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः / अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽर्चिमालिप्रभाः / / 8 / / __अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो गृहस्थ धर्म पालन कर स्वर्ग में जाते हैं वे वहाँ (दीहाउया) दीर्घायु (इड्ढ़िमंता) ऋद्धिमान् (समिद्धा) समृद्धिशाली (कामरूविणो) इच्छानुसार रूप पाने वाले (अहुणोववन्नसंकासा) मानो तत्काल ही जन्म लिया हो जैसे (भुज्जोअच्चिमालिप्पभा) और अनेकों सूर्यों की प्रभा के समान देदीप्यमान होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो गृहस्थ गृहस्थ धर्म पालते हुए नीति के साथ अपना जीवन बिताते हुए स्वर्ग को प्राप्त होते हैं, वे वहां दीर्घायु, ऋद्धिवान, समृद्धिशाली, इच्छानुकूल रूप बनाने की शक्तियुक्त तत्काल जन्मे हुए बालक जैसे और अनेकों सूर्यों की प्रभा के समान देदीप्यमान होते हैं। मूल : ताणि ठाणाणि गच्छंति, सिक्खिता संजमंतवा भिक्खाए वा गिहत्येवा, जे संतिपरिनिन्बुडा||९|| छायाः तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः। भिक्षुका वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिवृताः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संतिपरिनिव्वुडाः) शान्ति के द्वारा चहुँ ओर से संताप रहित (जे) जो (भिक्खाए) भिक्षु (वा) अथवा (गिहत्थे) गृहस्थ हों (संजम) संयम (तवं) तप को (सिक्खित्ता) अभ्यास करके (ताणि) उन दिव्य (ठाणाणि) स्थानों को (गच्छंति) जाते हैं। . भावार्थ : हे गौतम! क्षमा के द्वारा सकल संतापों से रहित होने पर साधु हो या गृहस्थ चाहे जो हो, जाति पांति का यहाँ कोई गौरव नहीं है। संयमी जीवन वाला और तपस्वी हो वही दिव्य स्वर्ग में जाता है। मूल: बहिया उड्ढमादाय, नाकंक्खे कयाइ वि। ___पुनकम्मक्खयट्ठाए, इमं देहं समुद्भरे||१०|| ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 - निर्ग्रन्थ प्रवचन/853 Imprary.org 2000000000000000000