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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf छायाः वाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदापि / ___ पूर्वकर्मक्षयार्थं, इमं देहं समुद्धरेत्।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बहिया) संसार से बाहर (उड्ढ) ऊर्ध्व, ऐसे मोक्ष की अभिलाषा (आदाय) ग्रहण कर (कयाइ वि) कभी भी (नाकंक्खे) विषयादि सेवन की इच्छा न करें और (पुव्वकम्मक्खयट्ठाए) पूर्व संचित कर्मों को नष्ट करने के लिए (इम) इस (देह) मानव शरीर को (समुद्धरे) निर्दोष वृत्ति से धारण करके रखे। भावार्थ : हे गौतम! संसार से परे जो मोक्ष है, उसको लक्ष्य में रखकर के कभी भी कोई विषयादि सेवन की इच्छा न करे और पूर्व के अनेक भवों में किये हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस शरीर का निर्दोष आहारादि से पालन पोषण करता हुआ अपने मानव जन्म को सफल बनावे। मूल: दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छंति सोग्गइं|११|| छायाः दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजी व्यपि दुर्लभः। . ___मुधादायी मुधाजीवी, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मुहादाई) स्वार्थ रहित भावना से देने वाला व्यक्ति (दुल्लहा) दुर्लभ है (उ) और (मुहाजीवी) स्वार्थ रहित भावना से दिये हुए भोजन के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले (वि) भी (दुल्लहा) दुर्लभ है, (मुहादाई) ऐसा देने वाला और (महाजीवी) ऐसा लेने वाला (दो वि) दोनों ही (सोग्गइं) सुगति को (गच्छंति) जाते हैं। पाठ भावार्थ : हे गौतम! नाना प्रकार के ऐहिक सुखों को प्राप्त होने की स्वार्थ रहित भावना से जो दान देता है, ऐसा व्यक्ति मिलना दुर्लभ ही है और देने वाले का किसी भी प्रकार संबंध व कार्य न करके उससे निस्वार्थ ही भोजन ग्रहण कर अपना जीवन निर्वाह करते हों, ऐसे महान पुरुष भी कम हैं / अतएव बिना स्वार्थ से देने वाला मुहादाई और निस्पृह भाव से लेने वाला मुहाजीवी दोनों ही सुगति में जाते हैं। मूल: संति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्या संजमुचरा। गारत्येहिं य सम्वेहि, साहवो संजमुत्रा||१२| छायाः सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, गृहस्थाः संयमोत्तराः। अगारस्थेभ्यः सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः / / 12 / / Jgooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ook निर्ग्रन्थ प्रवचन/86 000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 300000000000 www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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