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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl Poo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एगेहिं) कितने ही (भिक्खूहिं) शिथिल साधुओं से (गारत्था) गृहस्थ (संजमुत्तरा) संयमी जीवन बिताने में अच्छे (संति) होते हैं। (य) और (सव्वेहिं) देश विरति वाले सब (गारत्थेहिं) गृहस्थों से (संजमुत्तरा) निर्दोष संयम पालने वाले श्रेष्ठ हैं। भावार्थ : हे आर्य! कितने शिथिलाचारी साधुओं से गृहस्थ धर्म पालने वाले गृहस्थ भी अच्छे होते हैं। जो अपने नियमों को निर्दोष रूप से पालन करते रहते हैं और निर्दोष संयम पालने वाले जो साधु है, वे देश विरति वाले सब गृहस्थों से बढ़कर हैं। मूल: चीराजिणं नगिणिणं, जड़ी संघाडि मुंडिणं| एयाणि विन ताइंति, दुस्सीलं परियागयं||१३|| छायाः चीराजिनं नग्नत्वं जटित्वं संघाटित्वमुण्डितम्। ___एतान्यपि न त्रायन्ते, दुःशीलं पर्यायगतम्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुस्सील) दुराचार का धारक (चीराजिणं) केवल वल्कल और चर्म के वस्त्र वाला (नगिणिणं) नग्न अवस्था वाला (जड़ी) जटाधारी (संघाडि) वस्त्र के टुकड़े साँध साँध कर पहनने वाला (मुंडिणं) केसों का मुंडन या लोच करने वाला (एयाणि) ये सब (परियागय) दीक्षा धारण करके भी (न) नहीं (ताइंति) रक्षित होता है। . भावार्थ : हे गौतम! संयमी जीवन बिताये बिना केवल दरख्तों की छाल के वस्त्र पहनने से या किसी किस्म के चर्म के वस्त्र पहनने से, अथवा नग्न रहने से, अथवा जटाधारण करने से, अथवा फटे टूटे कपड़ों के टुकड़ों को सी कर पहनने से और केसों का मुण्डन व लोचन करने मात्र से कभी मुक्ति नहीं होती है। इसी प्रकार भले ही वह साधु कहलाता हो, पर वह दुराचारी न तो अपना स्वतः का रक्षण कर पाता है, और न औरों का ही। अतः स्व-पर कल्याण के लिए शील-सम्यक चारित्र का पालन करना ही श्रेयस्कर है। मूल: अत्यंगयंमि आइच्चे, पुरत्या य अणुग्गए। आहारमाइयं सद, मणसा वि न पत्थए||१४|| छायाः अस्तंगत आदित्ये, पुरस्ताच्यानुद्गगते। आहारमादिक सर्वं, मनसाऽपि न प्रार्थयत्।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आइच्चे) सूर्य (अत्यंगयंमि) अस्त होने पर (य) और (पुरत्था) पूर्व दिशा में (अणुग्गए) उदय नहीं हो वहाँ तक Agoo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/87 00000 SO0000oin RELAPStationsiderthatanal Dooood 00000000000000006 For Personal & Private Use Only www.janell brary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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