________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000 दमन कर रखा है, चलने, बैठने, खाने, पीने आदि सभी व्यवहारों में संयम रखता है, मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति से जिसने अपनी आत्मा को वीतरागतामय संयम में रखता है, जिसका चेहरा शान्त है, इन्द्रिय जन्य विषयों को विष समझकर जिसने छोड़ रखा हैं, वही आत्मा शुक्ल लेशी है। यदि इस अवस्था में मनुष्य मरता है तो वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है। मूल: किण्हा नीला काऊ तिण्णि वि, एयाओ अहमलेसाओ। एयाहिं तिहिं वि जीवो, दुग्गइं उववजई||१४|| छायाः कृष्णा नीला कापोता, तिस्त्रोऽप्येता अधर्म लेश्याः। एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, दुर्गतिमुपपद्यते।।१४।।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (किण्हा) कृष्ण (नीला) नील (काऊ), कापोत (एयाओ) ये (तिण्णि) तीनों (वि) ही (अहमलेसाओ) अधम लेश्याएँ हैं। (एयाहिं) इन (तिहिं) तीनों (वि) ही लेश्याओं से (जीवो) जीव (दुग्गइं) दुर्गति को (उव्वज्जई) प्राप्त करता है। __भावार्थ : हे गौतम! कृष्ण, नील और कपोत इन तीनों को ज्ञानीजनों ने अधर्म लेश्याएँ (अधर्म भावनाएँ) कही हैं। इस प्रकार की अधर्म भावनाओं से जीव दुर्गति में जाकर महान कष्टों को भोगता है। अतः ऐसी बुरी भावनाओं को कभी भी हृदयंगम न होने देना, यही श्रेष्ठ मार्ग है। मूल : तेउ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहिं तिहिं वि जीवो, सुम्गइं उववज्जई||१५| छायाः तेजसो पद्मा शुक्ला, तिस्त्रोऽप्येता धर्मलेश्याः। एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तेऊ) तेजो (पम्हा) पद्म और (सुक्का) शुक्ल (एयाओ) ये (तिण्णि) तीनों (वि) ही (धम्म लेसाओ) धर्म लेश्याएँ हैं। (एयाहिं) इन (तिहिं) तीनों (वि) ही लेश्याओं से (जीवो) जीव (सुग्गइं) सुगति को (उववज्जइ) प्राप्त करता है। भावार्थ : हे आर्य! तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीनों ज्ञानीजन द्वारा धर्म लेश्याएँ (धर्म भावनाएँ) कही गई हैं। इस प्रकार धर्म भावना रखने से वह जीव यहाँ भी प्रशंसा का पात्र होता है, और मरने के पश्चात् भी वह सुगति ही में जाता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वो अपनी 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/136 oooo00000000000ood Jain Education International 000000000000000008 www.jainelibrary.org. For Personal & Private Use Only