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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ogs Agooo000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (उवसंते) शान्त है स्वभाव जिसका, (य) और (जिइंदिए) जो इन्द्रियों को जीतता हो, (एय जोगसमाउत्तो) इस प्रकार की प्रवृत्ति वाला जो मनुष्य हो, वह (पम्हलेस) पद्म लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है। कि भावार्थ : हे गौतम! जिसको क्रोध, मान, माया, लोभ कम है, जो सदैव शान्त चित्त से रहता है, आत्मा का जो दमन करता है, मन, वचन, काया के शुभ योगों में जो अपनी प्रवृत्ति करता है, शास्त्रीय विधि से तप करता है, सोच विचार कर जो मधुर भाषण करता है, जो शरीर के अंगोपांगों को शांत रखता है। इन्द्रियों को हर समय जो काबू में रखता है, वह पद्मलेशी कहलाता है। इस प्रकार की भावना का एवं प्रवृत्ति का जो मनुष्य अनुशीलन करता है, वह मनुष्य मर कर ऊर्ध्वगति में जाता है। हे गौतम! शुक्ल लेश्या का कथन यों है। मूल : अट्टाहाणि वज्जिता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु||२|| सरागो वीयरागोवा, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसंतु परिणमे||१३|| छाया: आर्तरौद्रे वर्जयित्वा, धर्मशुक्ले ध्यायति। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः / / 12 / / सरागो वीतरागो वा, उपशान्तो जितेन्द्रियः। एतद्योग समायुक्तः, शुक्ललेश्यातु परिणमेत्।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अट्टरुद्दाणि) आर्तं और रौद्र ध्यानों को (वज्जित्ता) छोड़कर (धम्मसुक्काणि) धर्म और शुक्ल ध्यानों को (झायए) जो चिंतवन करता हो, (पसंतचिते) प्रशान्त है चित्त जिसका (दंतप्पा) दमन की है अपनी आत्मा को जिसने (समिए) जो पांच समिति करके युक्त हो, (य) और (गत्तिसु) तीन गुप्ति से (गुत्ते) गुप्त है (सरागो) जो सराग (वा) अथवा (वीयरागो) वीतराग संयम रखता हो, (उवसंते) शांत है चित्त और (जिइंदिए) जो जितेन्द्रिय है, (एयजोगसमाउत्तो) ऐसे आचरणों से जो युक्त है, वह मनुष्य (सुक्कलेस) शुक्ल लेश्या को (तु परिणमे) परिणमित होता है। भावार्थ : हे आर्य! जो आर्त और रौद्र ध्यानों को परित्याग करके सदैव धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान का चिन्तवन करता है, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के शान्त होने से प्रशान्त हो रहा है चित्त जिसका, सम्यक ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से जिसने अपनी आत्मा को 00000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000 %EN निर्ग्रन्थ प्रवचन/135 Moo00000000000000ot Education International For Personal & Private Use Only 000000000000 c/www.jainelibrary.orga
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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