________________ so00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावनाओं को सदा शुभ या शुद्ध रखें। जिससे उस आत्मा को मोक्ष धाम मिलने से विलम्ब न हो। मूल: अन्तमुहुचम्मि गए, अंतमुहुचम्मि सेसए चेवा लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं||१६|| छायाः अन्तर्मुहुर्ते गते, अन्तर्मुहूर्ते शेषे चैव। लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छन्ति परलोकम्।।१६।। 5 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परिणयाहिं) परिणमित हो गयी है (लेसाहि) लेश्या जिसके ऐसा (जीवा) जीव (अंतमुहुत्तम्मि) अन्तर्मुहूर्त (गए) होने पर (चव) और (अंतमुहुत्तम्मि) अन्तर्मुहूर्त (सेसए) अवशेष रहने पर (परलोय) परलोक को (गच्छंति) जाते हैं। भावार्थ : हे आर्य! मनुष्य और तिर्यंचों के अन्तिम समय में, योग्य व अयोग्य, जिस किसी भी स्थान पर उन्हें जाना होता है उसी स्थान के अनुसार उसकी भावना मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले आती है और वह भावना उसने अपने जीवन में भले और बुरे कार्य किये होंगे उसी के अनुसार अन्तिम समय में वैसी ही लेश्या (भावना) उसकी होती और देवलोक तथा नरक में रहे हुए देव और मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले अपने स्थानानुसार लैश्या (भावना) ही में मरेंगे। मूल : तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया। अप्पसत्याओ वज्जिता, पसत्याओऽहिटिट्ठए मुणी||१७ छायाः तस्मादेतासां लेश्यानां, अनुभावं विज्ञाय। अप्रशस्तास्तु वर्जयित्वा, प्रशस्ता अधितिष्ठन् मुनिः।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (तम्हा) इसलिए (एयासि) इन (लेसाणं) लेश्याओं के (अणुभावं) प्रभाव को (वियाणिया) जानकर (अप्पसत्थाओ) बुरी लेश्याओं (भावनाओं) को (वज्जिता) छोड़ कर (पसत्था) अच्छी प्रशस्त लेश्याओं को (मुणी) मुनि (अहिट्ठिए) अंगीकार करे। भावार्थ : हे भले बुरे के फल जानने वाले ज्ञानी साधुजनों। इस प्रकार छहों लेश्याओं का स्वरूप समझकर इनमें से बुरी लेश्याओं (भावनाओं) को तो कभी भी अपने हृदय तक में फटकने मत दो और अच्छी भावनाओं को सदैव हृदयंगम करके रखो। इसी में मानव जीवन की सफलता है। 990000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 oooor 5000000000 0000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/137 OOOOOOOOOOC 0000000000000000oda Jalin Education International For Personal & Private Use Only "www.jainelibrary.org