________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Qoo0000000000000000000000000 Mooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय तेरह - कषाय स्वरूप ||श्रीभगवानुवाच| मूलः कोहोअमाणोअअणिग्गहीआ, माया अलोभोअपवड्ढमाणा| चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स||१|| छाया: क्रोधश्च मानश्चातिगृहीतो, माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ। चत्वारि एते कृत्स्नाः कषायाः, सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्मवस्य।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अणिग्गहीआ) अनिग्रहीत (कोहो) क्रोध (अ) और (माणो) मान (पवड्ढमाणा) बढ़ता हुआ (माया) कपट (अ) और (लोभो) लोभ (एए) ये (कसिणा) सम्पूर्ण (चत्तारि) चारों ही (कसाया) कषाय (पुणब्भवस्स) पुनर्जन्म रूप वृक्ष के (मूलाई) मूलों को (सिंचंति) सींचते हैं। भावार्थ : हे आर्य! जिसका निग्रह नहीं किया है ऐसा क्रोध ओर मान तथ बढ़ता हुआ कपट और लोभ ये चारों ही सम्पूर्ण कषाय पुनः पुनः जन्म-मरण रूप वृक्ष के मूलों को हरा भरा रखते हैं। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों ही कषाय दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। मूलः जे कोहणे हो जगय भासी, विओसियं जे उ उदीरएज्जा अंधेव से दंडपहंगहाय, अविओसिए घासति पावकम्मी||२|| छायाः यः क्रोधनो भवति जगदर्थभाषी, व्यपशमितं यस्तु उदीरयेत्। / अन्ध इव सदण्डपथं गृहीत्वा, अव्यपशमितं घृष्यति पापकर्मा।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (कोहणे) क्रोधी (होइ) होता है वह (जगयभासी) जगत् के अर्थ को कहने वाला है (उ) और (जे) वह (विओसियं) उपशान्त क्रोध को (उदीरएज्जा) पुनः जाग्रत करता है। (व) जैसे (अन्धे) अन्धा (दंडपह) लकड़ी (गहाय) ग्रहण कर मार्ग में पशुओं से कष्ट पाता हुआ जाता है, ऐसे ही (से) वह (अविओसिए) अनुपशान्त (पावकम्मी) पाप करने वाला (धासति) चतुर्गति रूप मार्ग में कष्ट उठाता है। भावार्थ : हे गौतम! जिसने बात बात में क्रोध करने का स्वभाव कर रखा है, वह जगत के जीवों में अपने कर्मों से लूलापन, अंधापन, बधिरता आदि न्यूनताओं को अपनी जिहा के द्वारा सामने रख देता है 0000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/1385 000000000000 Jain Education International 0000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only