________________ ooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooop 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 और जो कलह उपशान्त हो रहा है, उसको पुनः चेतन कर देता है। जैसे अन्धा मनुष्य लकड़ी को लेकर चलते समय मार्ग में पशुओं आदि से कष्ट पाता है ऐसे ही वह महाक्रोधी चतुर्गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार के जन्म मरणों का दुःख उठाता रहता है। मूलः जेआवि अप्पं वसुमंतिमत्ता, संखायवायंअपरिक्ख कुज्जा। तवेणवाहं सहिउ तिमत्ता, अण्णंजणंपस्सति बिंबभूय||३|| छाया: यश् चापि आत्मानं वसुमान् मत्त्वा, संख्यां च वादमपरीक्ष्य कुर्यात्। तपसा वाऽहं सहित इति मत्वा, अन्यं जनं पश्यति बिम्बमूतम्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे आदि) जो अल्प मति है, वह (अप्पं) अपनी आत्मा को (वसुमंति) संयमवान है, ऐसा (मत्ता) मानकर और (संखाय) अपने को ज्ञानवान समझता हुआ (अप्परिक्ख) परमार्थ को नहीं जानकर (वाय) वाद विवाद करता है। (अह) मैं (तवेण) तपस्या करके (सहिउत्ति) सहित हूँ, ऐसा (मत्ता) मानकर (अण्ण) दूसरे (जणं) मनुष्य को (बिंबभूयं) केवल आकार मात्र (पस्सति) देखता है। भावार्थ : हे आर्य! जो अल्प मति वाला मनुष्य है, वह अपने ही को संयमवान समझता है और कहता है कि मेरे समान संयम रखने वाला कोई दूसरा है ही नहीं। जिस प्रकार मैं ज्ञान वाला हूँ, वैसा दूसरा कोई है ही नहीं, इस प्रकार अपनी श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटता फिरता है तथा तपवान भी मैं ही हूँ, ऐसा मानकर वह दूसरे मनुष्य को गुणशून्य और केवल मनुष्याकार मात्र ही देखता है। इस प्रकार मान करने से वह मानी, पाई हुई वस्तु से ही हीनावस्था में जा गिरता है। मूल : पूयणट्ठी, जसोकामी, माणसम्माणामए। बहुं पसवइ पावं, मायासल्लं च कुवई||४|| छायाः पूजनार्थी यशस्कामी, मानसन्मानकामुकः। बहु प्रसूते पापं, मायाशल्यं च कुरुते।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पूयणट्ठा) ज्यों की त्यों अपनी शोभा रखने के अर्थ (जसोकामी) यश का कामी और (माणसम्माण) मान-सम्मान का (कामए) चाहने वाला (बहु) बहुत (पावं) पाप (पसवइ) पैदा करता है (च) और (मायासल्लं) कपट, शल्य को (कुव्वइ) करता है। ___ भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य पूजा, यश, मान और सम्मान का भूखा है, वह इनकी प्राप्ति के लिए अनेक तरह के प्रपंच करके अपने 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/139 000000000000od 0000000000000000 www.jainelibrary.org Gal Education International For Personal & Private Use Only