________________ gooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oop! Vdoo000000000000000000000000000000000000m 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः न राक्षसीषु गृध्येत, गण्डवक्षस्वनेकचित्तासु। याः पुरुष प्रलोमप्प, क्रीडन्ति यथा दासैरिव।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! ब्रह्मचारी को(गंडवच्छासु) फोड़े के समान वक्षस्थल वाली (अणेगचित्तासु) चंचल चित्त वाली (रक्खसीसु) राक्षसी स्त्रियों में (णो) नहीं (गिज्झिज्जा) गृद्धि होना चाहिए, क्योंकि (जाओ) जो स्त्रियाँ (पुरिसं) पुरुष को (पलोभित्ता) प्रलोमित करके (जहा) जैसे (दासेहिं) दास की (वा) तरह (खेलंति) क्रीडा कराती है। भावार्थ : हे गौतम! ब्रह्मचारियों को फोड़े के समान स्तन वाली एवं चंचल चित्तवाली जो बातें तो किसी दूसरे से करे और देखें दूसरे की ही ओर ऐसी अनेक चित्त वाली राक्षसियों के समान स्त्रियों में कभी आसक्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे स्त्रियाँ मनुष्यों को विषय वासना का प्रलोभन दिखाकर अपनी अनेक आज्ञाओं का पालन कराने में उन्हें दासों की भांति दत्तचित्त रखती हैं। मूल: भोगामिसदोसविसन्न, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्यं| बाले य मंदिए मूढ़े, बज्झई मच्छिया व खेलम्मि||९|| छायाः भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिश्रेयसबुद्धि विपर्यस्तः। बालश्च मन्दो मूढ़ः, बध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि।।६।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भोगामिसदोसविसन्ने) भोग रूप मांस जो आत्मा को दूषित करने वाला दोष रूप है, उसमें आसक्त होने वाले तथा (हियनिस्सेयसबुद्धि वोच्चत्थे) हित कारक जो मोक्ष है उसकों प्राप्त करने की जो बुद्धि है उससे विपरीत बर्ताव करने वाले (य) और (मंदिर) धर्म-क्रिया में आलसी (मूढ़े) मोह में लिप्त (बाले) ऐसे अज्ञानी जीव कर्मों में बंध जाते हैं और (खेलम्मि) श्लेष-कफ में (मच्छिआ) मक्खी की (व) तरह (बज्झई) फंस जाते हैं। ___भावार्थ : हे गौतम! विषय वासना रूप जो मांस है, यही आत्मा को दूषित करने वाला दोष रूप है। इसमें आसक्त होने वाले तथा हितकारी जो मोक्ष है उसके साधन की बुद्धि से विमुख और धर्म करने में आलसी तथा मोह में लिप्त हो जाने वाले अज्ञानीजन अपने गाढ़ कर्मो में जैसे मक्खी श्लेष (कफ) में लिपट जाती है वैसे ही फंस जाते हैं। मूल : सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे पत्येमाणा, अकामा जति दुग्गइं|१०|| goooo00000000000000000000000oipoooooooooooooooo00000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog N निर्ग्रन्थ प्रवचन/94 oooooo00000000000 OOOOOOOO Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org