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________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 छायाः नादर्शनिनो ज्ञानम्, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः। अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम्।।७।। 2 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अदंसणिस्स) सम्यक्त्व से रहित मनुष्य को (नाणं) ज्ञान (न) नहीं होता है। और (नाणेण) ज्ञान के (विणा) बिना (चरणगुणा) चारित्र के गुणा (न) नहीं (होति) होते हैं और (अमुक्कस्स) चरित्र रहित मनुष्य की कर्मों से मुक्ति नहीं होती और कर्म रहित हुए बिना किसी को (निव्वाणे) निर्वाण (नत्त्यि) नहीं प्राप्त हो सकता है। __भावार्थ : हे गौतम! सम्यक्त्व के प्राप्त हुए बिना मनुष्य को सम्यक् ज्ञान नहीं मिलता है, ज्ञान के बिना आत्मिक गुणों का प्रकट होना दुर्लभ है। बिना आत्मिक गुण प्रकट हुए उसके जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों का क्षय होना दुसाध्य है और कर्मों का नाश हुए बिना किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता है। अतः सबके पहले सम्यक्त्व की आवश्यकता है। मूल : निस्संकिय-निक्कंखिय-निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी या उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ||६| छाया: निः शंकितं निःकांक्षितम, निर्विचिकित्साऽमढदृष्टिश्च। उपबृहा-स्थिरीकरणे, वात्सल्यप्रभावतेऽष्टौ।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! सम्यक्त्व धारी वही है, जो (निस्संकिय) निःशंकित रहता है, (निक्कंखिय) अतत्वों की कांक्षा रहित रहता है। (निवितिगिच्छा) सुकृतो के फल होने में संदेह रहित रहता है। (य) और (अमूढदिट्ठी) जो अतत्वधारियों को ऋद्धिवन्त देखकर मोह न करता हुआ रहता है। सम्यक्त्व से पतित होते हुए को स्थिर करता (वच्छल्लपभावणे) स्वधर्मी जनों की सेवा शुश्रूषा कर वात्सल्यभाव दिखाता रहता है और आठवें में जो सन्मार्ग की उन्नति करता रहता है। भावार्थ : हे आर्य! सम्यक्त्वधारी वही है, जो शुद्ध देव, गुरु, धर्म रूप तत्वों पर निःशंकित हो कर श्रद्धा रखता है। कुदेव कुगुरु कुधर्म प जो अतत्त्व हैं, उन्हें ग्रहण करने की तनिक भी अभिलाषा नहीं करता है। गृहस्थ-धर्म या मुनि धर्म से होने वाले फलों में जो कभी भी संदेह नहीं करता। अन्य दर्शनी को धन सम्पत्ति से भरा पूरा देख कर जो ऐसा विचार नहीं करता कि मेरे दर्शन से इसका दर्शन ठीक है, तभी तो यह इतना धनवान है,सम्यक्त्वधारियों की यथायोग्य प्रशंसा कर के goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool 50000000000000000000000000000000000000000000000060 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/75 000000000000000 Jain Education International Doo000000000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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