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________________ goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooooooot goo0000000000000000000000000000 500000000000 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (निस्सग्गुवएसरुई) बिना उपदेश, स्वभाव से और उपदेश से जो रुचि हो (आणरुई) आज्ञा से रुचि हो (सुत्तवीअरुइमेव) श्रुत श्रवण से एवं एक से अनेक अर्थ निकलते हों वैसे वचन सुनने से रुचि हो (अभिगमवित्थाररुई) विशेष विज्ञान होने पर तथा बहुत विस्तार से सुनने से रुचि हो (किरियासंखेवधम्मरुई) क्रिया करते करते तथा संक्षेप से या श्रुत धर्म श्रवण से रुचि हो। भावार्थ : हे गौतम! उपदेश श्रवण न करके स्वभाव से ही तत्व की रूचि होने पर किसी किसी को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किसी को उपदेश सुनने से, किसी को भगवान की इस प्रकार की आज्ञा है ऐसा, सुनने से, सूत्रों के श्रवण करने से, एक शब्द को जो बीज की तरह अनेक अर्थ बताता हो ऐसा वचन सुनने से, विशेष विज्ञान हो जाने से, विस्तार पूर्वक अर्थ सुनने से, धार्मिक अनुष्ठान करने से, संक्षेप अर्थ सुनने से, श्रुत धर्म के मनन पूर्वक श्रवण करने से तत्वों की रुचि होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। मूल : नत्थि चरित्वं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइअव्वं| सम्मत्तचरित्ताई, जुगवं पुलं व सम्मत्वंlll छायाः नास्ति चारित्रं सम्यक्त्वविहीनं, दर्शने तु भक्तव्यम्। सम्यक्त्व चारित्रे, युगपत् पूर्व वा सम्यक्त्वम्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सम्मत्तविहूणं) सम्यक्त्व के बिना (चरित्तं) चारित्र (नत्थि) नहीं है (उ) और (दंसणे) दर्शन के होने पर (भइअव्व) चारित्र भजनीय है। (सम्मत्तचरित्ताई) सम्यक्त्व और चारित्र (जुगवं) एक साथ भी होते हैं। (व) अथवा (सम्मत्त) सम्यक्त्व चारित्र के (पुव्वं) पूर्व भी होता है। ___भावार्थ : हे गौतम! सम्यक्त्व के बिना चारित्र का उदय होता ही नहीं है। पहले सम्यकत्व होगा, फिर चारित्र हो सकता है, और सम्यक्त्व में चारित्र का भावाभाव है, क्योंकि सम्यक्त्वी कोई ग्रहस्थ धर्म का पालन करता है, और कोई मुनि धर्म का / सम्यक्त्व और चारित्र की उत्पत्ति एक साथ भी होती है अथवा चारित्र, के पहले भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। मूल : नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्स्थि मोक्खो, नत्थि अमुक्कस्स निव्वाणं|७|| 0000000000000000 50000000000000000000000000000000000 - निर्गन्य एखनन / Jain Education International Fon Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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