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________________ goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जो उनके सम्यक्त्व के गुणों की वृद्धि करता है, सम्यत्क्व से पतित होते हुए अन्य पुरुष को यथा शक्ति प्रयत्न करके सम्यक्त्व में जो दृढ़ करता है। स्वधर्मीजनों की सेवा शुश्रूषा करके जो उनके प्रति वात्सल्य भाव दिखाता है। मूल : मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोहि|६|| छाया: मिथ्यादर्शनरक्ता, सनिदाना हि हिंसकाः इति ये नियन्ते जीवा, तेषां पुनः दुर्लभा बोधिः।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मिच्छादसणरत्ता) मिथ्या दर्शन में रत रहने वाले और (सनियाणा) निदान करने वाले (हिंसगा) हिंसा करने वाले (इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीव (मरंति) मरते हैं। (तसिं) उनको (पुण) फिर (बोहि) सम्यक्त्व धर्म का मिलना (हु) निश्चय (दुल्लहा) दुर्लभ हैं। भावार्थ : हे आर्य! कुदेव कुगुरु कुधर्म में रत रहने वाले और निदान सहित धर्म क्रिया करने वाले एवं हिंसा करने वाले जो जीव हैं, वे इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति करके मरते हैं, तो फिर उन्हें अगले भव में सम्यक्त्व बोध मिलना महान कठिन है। . मूल : सम्मइंसणरत्ता अनियाणा; सुक्कलेसमोगाढा। इयजे मरंति जीवा; सुलहा तेसिं भवे बोहि||१०|| छायाः सम्यग्दर्शनरक्ताअनिदाना शुक्लेश्यामवगाढाः ___ इति ये म्रियन्ते जीवाः, सुलभा तेषां भवति बोधिः।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सम्मइंसणरत्ता) सम्यक् दर्शन में रत रहने वाले (अनियाणा) निदान नहीं करने वाले एवं (सुक्कलेसमोगाढ़ा) शुक्ल लेश्या से समन्वित हृदय वाले। (इय) इस तरह (जे) जो (जीवा) जीव (मरंति) मरते हैं (तेसिं) उन्हें (बोहि) सम्यक्त्व (सुलहा) सुलभता से (भवे) प्राप्त हो सकता है। भावार्थ : हे गौतम! जो शुद्ध देव, गुरु और धर्म रूप दर्शन में श्रद्धापूर्वक सदैवरत रहता हो। निदान रहित तप, धर्म क्रिया करता हो और शुद्ध परिणामों से जिसका हृदय उमंग रहा हो। इस तरह प्रवृत्ति रख करके जो जीव मरते हैं; उन्हें धर्म बोध की प्राप्ति अगले भव में सुगमता से होती जाती है। Dog000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/76 5000000000000oCil 000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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