________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणंजे करेंति भावेणं| अमला असंकिलिट्ठा, ते होति परित्तसंसारी||११|| छाया: जिनवचनेऽनुरक्ताः, जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन। अमला असंक्लिष्टास्ते भवन्ति परीतसंसारिणः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो जीव (जिणवयणे) वीगरागों के वचनों में (अणुरत्ता) अनुरक्त रहते हैं और (भावेणं) श्रद्धापूर्वक (जिणवयणं) जिन वचनों को प्रमाण रूप (करेंति) मानते हैं (अमला) मिथ्यात्व रूप मल से रहित एवं (असंकिलिट्ठा) संक्लेश करके रहित जो हो, (ते) वे (परित्तसंसारी) अल्प संसारी होते हैं। भावार्थ : हे आर्य! जो वीतराग के कहे हुए वचनों में अनुरक्त रहकर उनके वचनों को प्रमाण भूत मानते हैं, तथा मिथ्यात्व रूप दुर्गुणों से बचते हुए राग द्वेष से दूर रहते हैं, वे ही सम्यक्त्व को प्राप्त करके, अल्प समय में ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। मूलः जातिं च वुड्डिं च इहज्ज पास, भूतेहिं जाणे पडिलेह सायं| तम्हाऽतिविज्जोपरमंतिणच्चा, सम्मत्तदंसीणकरेइपाव||२|| छायाः जातिं च बृद्धिं च इह दृष्ट्वा, भूतैर्ज्ञात्वा प्रतिलेख्य सातम्। तस्मादतिविज्ञः परमिति ज्ञात्वा, सम्यक्त्वदर्शीन करोति पापम्।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जाति) जन्म (च) और (वुदि) वृद्धपन को (इहज्ज) इस संसार में (पास) देखकर (च) और (भूतेहिं) प्राणियों के (सायं) साता को (जाणे) जान (पडिलेह) देख (तम्हा) इसलिये (अतिविज्जो) तत्वज्ञ (परम) मोक्ष मार्ग (णच्चा) जानकर (सम्मत्तदंसी) सम्यक्त्व दृष्टि वाले (पावं) पाप को (ण) नहीं (करेइ) करता है। _भावार्थ : हे गौतम! इस संसार में जन्म और मरण के महान दुःखों को तू देख और इस बात का ज्ञान प्राप्त कर किस सब जीवों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है। इस लिये ज्ञानीजन मोक्ष के मार्ग को जान कर सम्यक्त्वधारी बन कर किंचित् मात्र भी पाप नहीं करते हैं। मूल: इओ बिद्धंसमाणस्स, पुणो, संबोहि दुल्लहा। दुल्लहाओ वहच्चाओ, जे धम्मठें वियागरे||१३|| छाया: इतो विध्वंसमानस्य, पुनः संबोधिर्दुर्लभा / दुर्लभातथाऽर्चा ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति।।१३।। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/77 - 00000000000000MA Jain Education International booo000000000000 www.jainelibrary.org, For Personal & Private Use Only