________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g doo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लकड़ी कशा चाबुक शस्त्र आदि निमित्त, (आहारे) अधिक आहार वियणा) शारीरिक वेदना (पराघाते) खड्डे आदि में गिरने के निमित्त (फासे) सर्पादिक का स्पर्श (आणपाणू) उच्छवास निश्वास का रोकना आदि कारणों से आयु का क्षय होता है। ___ भावार्थ : हे गौतम! सात कारणों से आयु अकाल में ही क्षीण होता है। वे यों हैं:-राग, स्नेह, भयपूर्वक अध्यवसाय के आने से, दंड (लकड़ी) कशा (चाबुक) शस्त्र आदि के प्रयोग से, अधिक भोजन खा लेने से, नेत्र आदि की अधिक व्याधि होने से, खड्डे आदि में गिर जाने से और उच्छवास निश्वास के रोक देने से। मूल : जह मिउंलवालिचं, गुरुयं तुम्बं अहो वयइ एवं। आसवकयकम्मगुरु, जीवा वच्चंति अहरगइं|१८|| छायाः यथा मृल्लेपालिप्तं गुरुं तुम्ब अधोव्रजत्येवं। आश्रवकृतकर्मगुरवो जीवा व्रजन्त्यधोगतिम्।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (मिउलेवालित्तं) मिट्टी के लेप से लिपटा हुआ वह (गरुयं) सारी (तुम्बं) तूंबा (अहो) नीचा (वयइ) जाता है। (एव) इसी तरह (आसवयकम्मगुरु) आश्रव कृत कर्मों द्वारा भारी हुआ (जीवा) जीव (अहरगइं) अधोगति को (वच्चंति) जाते हैं। ___भावार्थ : हे गौतम! जेसे मिट्टी का लेप लगने से तंबा भारी हो जाता है, अगर उसको पानी पर रख दिया जाए तो वह उसकी तह तक नीचे ही चला जाएगा ऊपर नहीं उठेगा। इसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और मूर्छा आदि आश्रव रूप कर्म कर लेने से, यह आत्मा भी भारी हो जाता है और यही कारण है कि तब यह आत्मा अधोगति को अपना स्थान बना लेता है। मूल : तं चेव तब्दिमुक्कं, जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं जह वह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइट्ठिया होति||९|| छाया: स चैव तद्विमुक्तः जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावः। यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकाग्रप्रतिष्ठिता भवन्ति।।१६।। - अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जह) जैसे (तं चेव) वहीं तूंबा (तव्विमुक्क) उस मिट्टी के लेप से मुक्त होने पर (जायलहुभावं) हलका हो जाता है, तब (जलोवरिं) जल के ऊपर (ठाइ) ठहरा रह सकता है। (तह) उसी प्रकार (कम्मविमुक्का) कर्म से मुक्त हुए जीव (लोयग्गपइट्ठिया) लोक के अग्रभाग पर स्थित (होति) होते हैं। agooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 24 निर्ग्रन्थ प्रवचन/61 000000000000000 Jain Education International 0000000000000000064 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only