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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 का सम्पादन करता है फिर जीव रक्षा के लिए कटिबद्ध होता है। सच है, जिनको कुछ भी ज्ञान नहीं है, वे क्या तो दया का पालन करेंगे?और क्या हिताहित ही को पहचानेंगे? इसलिए सबसे पहले ज्ञान का सम्पादन करना आवश्यकीय है। यहाँ 'दया' शब्द उपलक्षण है, इसलिए उससे प्रत्येक क्रिया का अर्थ समझना चाहिए। मूल: सोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणाइ पावगं| उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समायरे||५|| छायाः श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम्। उभयेऽपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सोच्चा) सुनकर (कल्लाणं) कल्याणकारी मार्ग को (जाणइ) जानता है, और (सोच्चा) सुनकर (पावगं) पापमय मार्ग को (जाणइ) जानता है। (उभयं पि) और दोनों को भी (सोच्चा) सुनकर (जाणई) जानता है। (ज) जो (छेय) अच्छा हो (तं) उसको (समायरे) अंगीकार करे। भावार्थ : हे गौतम! सुनने से हित अहित, मंगल, अमंगल पुण्य और पाप का बोध होता है और बोध हो जाने पर यह आत्मा अपने आप श्रेयस्कर मार्ग को अंगीकार कर लेता है और इसी मार्ग के आधार पर आखिर में अनंत सुखमय मोक्षधाम को भी यह पा लेता है। इसलिए महर्षियों ने श्रुतज्ञान ही को प्रथम स्थान दिया है। मूल : जहा सूई ससुत्ता, पडिआ वि न विणस्सइ। वहा जीवे ससुत्के, संसारे न विणस्सहा|६|| छायाः यथा शूची ससूत्रा, पतिताऽपि न विनश्यते। तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यते।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (ससुत्ता) सूत्र सहित धागे के साथ (पडिआ) गिरी हुई (सूई) सूई (न) नहीं (विणस्सइ) खोती है। (तहा) उसी तरह (ससुत्ता) सूत्र श्रुतज्ञान सहित (जीवे) जीव (संसारे) संसार में (वि) भी (न) नहीं (विणस्सइ) नष्ट होता है। _भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार धागे वाली सुई गिर जाने पर भी खो नहीं सकती, अर्थात् पुनः शीघ्र मिल जाती है, उसी प्रकार श्रुत ज्ञान संयुक्त आत्मा कदाचित् मिथ्यात्वादि अशुभ कर्मोदय से सम्यक्त्व धर्म से च्युत हो भी जाए तो वह आत्मा पुनः रत्नत्रय रूप धर्म को शीघ्रता से ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000 N निर्ग्रन्थ प्रवचन/67 - 1000000000000ook Jain Education International 00000000000000 swww.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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