________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oot प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त श्रुत ज्ञानवान आत्मा संसार में रहते हुए भी दुःखी नहीं होता, अर्थात् समता और शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करता है। मूल: जावंतऽविज्जापुरिसा, सब्वे ते दुक्खसंभवा| लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतएllull छाया: यावन्तोऽविद्याः पुरुषाः, सर्वे ते दुःखसंभवाः। लुप्यन्ते बहुषो मूढाः, संसारे अनन्तके।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जावंत) जितने (अविज्जा) तत्वज्ञान रहित (पुरिसा) मनुष्य हैं (ते) वे (सव्वे) सब (दुक्खसम्भवा) दुःख उत्पन्न होने के स्थान रूप है। इसी से वे (मूढा) मूर्ख (अणंतए) अनंत (संसारम्भि) संसार में (बहुसो) अनेकों बार (लुप्पंति) पीड़ित होते हैं। ___भावार्थ : हे गौतम! तत्व ज्ञान से हीन जितने भी आत्मा हैं, वे सबके सब अनेकों दुःखों के भागी हैं। इस अनंत संसार की चक्रफेरी में परिभ्रमण करते हुए वे नाना प्रकार के दुःखों को उठाते हैं। उन आत्माओं का क्षण भर के लिए भी अपने कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है। हे गौतम! इस कदर ज्ञान की मुख्यता बताने पर तुझे यों न समझ लेना चाहिए, कि मुक्ति केवल ज्ञान ही से होती है बल्कि उसके साथ क्रिया की भी जरूरत है। ज्ञान और क्रिया इन दोनों के होने पर ही मुक्ति हो सकती है। मूल: इहमेगे उ मण्णंति, अप्पचक्खाय पावगं / आयरिअं विदित्ताणं, सबदुक्खा विमुच्चई| छायाः इहैके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम्। _आर्यत्वं विदित्वा, सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उ) फिर इस विषय में (इह) यहाँ (मेगे) कई एक मनुष्य यों (मण्णंति) मानते हैं कि (पावगं) पाप का (अप्पच्चक्खाय) बिना त्याग किये ही केवल (आयरिअ) अनुष्ठान को (विदित्ताणं) जान लेने ही से (सव्वदुक्खा) सब दुःखों से (विमुच्चई) मुक्त हो जाता है। भावार्थ : हे आर्य! कई एक लोग ऐसे भी हैं, जो यह मानते हैं कि पाप के बिना ही त्यागे, अनुष्ठान मात्र को जान लेने से मुक्ति हो जाती है। पर उनका ऐसा मानना नितान्त असंगत है। क्योंकि अनुष्ठान को 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/68 co00000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 0000000000006 www.jatnellbrrary.org