SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जान लेने ही से मुक्ति नहीं हो जाती है। मुक्ति तो तभी होगी, जब उस विषय में प्रवृत्ति की जायेगी। अतः मुक्ति पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है। जिसने सद्ज्ञान के अनुसार अपनी प्रवृत्ति कर ली है, उसके लिए मुक्ति सचमुच ही अति निकट हो जाती है। अकेले ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है। मूल : भणंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो। वायाविरियमत्तेणं, समासासंति अप्पयं||९|| छाया: भण्न्तोऽकुर्वन्तेश्च, बन्धमोक्ष प्रतिज्ञिनः। वाग्वीर्यमात्रेण, समाश्वसन्त्यात्मानम्।।६।। __ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बंधमोक्खपइण्णिणो) ज्ञान ही को बंध और मोक्ष का कारण मानने वाले, कई एक लोग ज्ञान ही से मुक्ति होती है, ऐसा (भणंता) बोलते है। (य) परन्तु (अकरिता) अनुष्ठान वे नहीं करते। अतः वे लोग (वायाविरियमत्तेणं) इस प्रकार वचन की वीरता मात्र ही से (अप्पयं) आत्मा को (समासासंति) अच्छी तरह आश्वासन देते हैं। __भावार्थ : हे गौतम! कर्मों का बंधन और शमन एक ज्ञान ही से होता है, ऐसा दावा-प्रतिज्ञा करने वाले कई एक लोग अनुष्ठान की उपेक्षा करके यों बोलते हैं कि ज्ञान ही से मुक्ति हो जाती है, परन्तु वे एकान्त ज्ञानवादी लोग केवल अपने बोलने की वीरता मात्र ही से अपने आत्मा को विश्वास देते हैं कि हे आत्मा! तू कुछ भी चिन्ता मत कर, तू पढ़ा लिखा है, बस, इसी से कर्मों का मोचन हो जाएगा। तप, जप किसी भी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। हे गौतम! इस प्रकार आत्मा को आश्वासन देना, मानो आत्मा को धोखा देना है। क्योंकि, ज्ञानपूर्वक अनुष्ठान करने ही से कर्मों का मोचन होता है। इसीलिए मुक्ति पथ में ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है। मूल: णचित्ता तायए भासा, कओ विज्जाणुसासणं| ... विसण्णा पावकम्मेहिं, बाला पंडियमाणिणो||0|| छायाः न चित्रास्त्रान्ते भाषाः, कुतो विद्यानुशासनम्। विषण्णः पापकर्मभिः, बाला:पण्डितमानिनः / / 10 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पंढियमाणिणो) अपने आपको पण्डित मानने वाले (बाला) अज्ञानीजन (पावकम्मेहिं) पाप कर्मों द्वारा (विसण्णा) फंसे हुए यह नहीं जानते हैं कि (चित्ता) विचित्र प्रकार की (भासा) भाषा (तायए) त्राण-शरण (ण) नहीं होती है। तो फिर Poooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000b6 0000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/69 100000000000000ODA Nain Education International 00000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy