________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 18000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ऐसे जीवों की आंख खोलने के लिए इस अध्याय में बड़े काम की बातें प्रस्तुत की गई हैं। अल्पकालीन जीवन को सजग करते हुए कहा गया है कि यदि मनुष्य कमल की भांति निर्लेप बनकर स्नेहवृत्ति को छोड़ धन-धान्य, स्त्री-पुत्र आदि का परित्याग करके अणगार जीवन धारण करता है एवं छोड़े गए सुखों की पुनः कामना नहीं करता है तो वही सच्चा विरक्त है। (11) ग्यारहवें अध्याय में बोलने सम्बन्धी नियम प्रतिपादित किए गए हैं। कहा गया है सत्य होने पर भी जो बोलने के अयोग्य हो, जिसमें किसी भाग का असत्य होना, छपा हो ऐसी मिश्र भाषा नहीं बोलनी चाहिए। जो सर्वथा असत्य हो उसकी चर्चा भी करना पाप है। व्यवहार भाषा, अनवद्य भाषा, कर्कषता मुक्त भाषा, सन्देह रहित भाषा बोलना ही सार्थक है। क्रोध, मान, माया, लोभ और भय आदि से भी नहीं बोलना चाहिए। बिना पूछे दूसरे बोलने वालों के बीच में भी नहीं बोलना चाहिए। चुगली तो कभी नहीं करनी चाहिए। (12) इस अध्याय में लेश्या सिद्धांत का निरुपण किया गया है। कषाय से अनुरंजित मन-वचन-काया की प्रवृति लेश्या कहलाती है। यही कर्म का कारण है। मुमुक्षु जीवों को प्रस्तुत अध्याय के वर्णनानुसार अपने व्यापारव्यवहार की जांच करते रहना चाहिए और अप्रशस्त लेश्याओं से बचते रहना चाहिए। (13) अध्याय तेरह में कषाय का वर्णन है। क्रोध आदि चार कषाय पुर्नजन्म की जड़ को हरा-भरा करते हैं। क्रोधी, अहंकारी, मायावी जीव को कहीं भी और कभी भी शान्ति नहीं मिलती। लोभ, पाप का बाप है। कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत सोने चांदी के खड़े कर दिए जाएं तो भी लोभी को संतोष नहीं होता है। ऐसे लोभ को त्यागना ही कल्याण का मार्ग है। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog निर्ग्रन्थ प्रवचन/13 Nos 0000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org