________________ Agoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 o000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर रखा है। इसी तरह सब मुनियों को चाहिए कि वे ज्ञान रूप लगाम से इस मन को निग्रह करते रहें। मूल : सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव या चउत्थी असच्चमोसा य, मणगुत्ती चउलिहा||३|| छाया: सत्या तथैव मृषा च सत्यामुषा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यामृषा तु, मनोगुप्तिश्चतुर्विधा / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मणगुत्ती) मन गुप्ति (चउव्विहा) चार प्रकार की है। (सच्चा) सत्य (तहेव) तथा (मोसा) मुषा (य) और (सच्चामोसा) सत्य मृषा (य) और (तहेव) वैसे ही (चउत्थी) चौथी (असच्चमोसा) असत्यमृषा है। भावार्थ : हे गौतम! मन चारों ओर घूमता रहता है। (1) सत्य विषय में (2) असत्य विषय में (3) कुछ सत्य और कुछ असत्य विषय में, (4) सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं ऐसे असत्यमृषा विषय में प्रवृत्ति करता है। जब यह मन असत्य कुछ सत्य और कुछ असत्य इन दो विभागों में प्रवृत्ति करता है तो महान अनर्थों को उपार्जन करता है। उन अनर्थों के भार से आत्मा अधोगति में जाती है। अतएव असत्य और मिश्र की ओर घूमते हुए इस मन को निग्रह करके रखना चाहिए। मूल: संरंभसंमारंभे, आरंभिम्मिय तहेव या मणं पवत्तमाणंतु, निअत्तिज्ज जयं जई||४|| छायाः संरंभे समारंभे, आरंभे च तथैव च। मनः प्रवर्तमान तु, निवर्तयेद्यत यतिः / / 4 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जयं) यत्नवान् (जई) यति (संरंभसमारंभे) किसी को मारने के संबंध में और पीड़ा देने के सम्बन्ध में (य) और (तहेव) वैसे ही (आरम्भम्मि) हिंसक परिणाम के विषय में (पवत्तमाणं तु) प्रवृत्त होते हुए (मणं) मन को (निअत्ति ज्ज) निवृत्त करना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! यत्नवान साधु हो, या गृहस्थ हो, चाहे जो हो, किन्तु मन के द्वारा कभी भी ऐसा विचार तक न करे कि अमुक को मार डालूं या उसे किसी तरह पीड़ित कर दूं तथा उसका सर्वस्व नष्ट कर डालूं। क्योंकि मन के द्वारा ऐसा विचार मात्र कर लेने से वह आत्मा महा पातकी बन जाता है। अतएव हिंसक अशुभ परिणामों की ओर जाते हुए इस मन को पीछे घुमाओ और निग्रह करके रखो। इसी तरह कर्म बन्धने की ओर घूमते हुए, वचन और काया को भी निग्रह करके रखो।' 990000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain निर्गस्थ प्रवचन/160, KRIORal 00000000000000000 AIDADUCERAMAdh 200000000000866