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________________ ago00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : वत्यगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि या अच्छंदाजे नभुंजंति, न से चाइ ति वुच्चई||५|| छायाः वस्त्रगन्धमलंकारं, स्त्रियः शयनानि च। अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति, न ते त्यागिन इत्युच्यते।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वत्थगंधमलंकार) वस्त्र, सुगंध, भूषण (इत्थीओ) स्त्रियो (य) और (सयणाणि) शय्या वगैरह को (अच्छंदो) पराधीन होने से (जे) जो (न) नहीं (भुजंति) भोगते हैं (से) वे (चाइ) त्यागी (न) नहीं (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहा है। ___भावार्थ : हे आर्य! सम्पूर्ण परित्याग अवस्था में, या गृहस्थ की सामायिक अवस्था में, अथवा त्याग होने पर कई प्रकार के बढ़िया वस्त्र, सुगंध, इत्र आदि भूषण वगैरह एवं स्त्रियों और शय्या आदि के सेवन करने की जो मन द्वारा केवल इच्छा मात्र ही करता है, परन्तु उन वस्तुओं को पराधीन होने से भोग नहीं सकता है, उसे त्यागी नहीं कहते हैं, क्योंकि उसकी इच्छा नहीं मिटी, वह मानसिक त्यागी नहीं बना है। मूल : जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिढिकुलहा साहीणे चयई भोए, से हुचाई चि वुच्चइ||६|| छायाः यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्ध्वानपि विपृष्ठीकुरुते। _ स्वाधीनात्त्यजति भोगान्, स हि त्यगीत्युच्यते।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कंते) सुन्दर (पिए) मन मोहक (लद्धे) पाये हुए (भोए) भोगों को (वि) भी (जे) जो (पिट्ठिकुब्वइ) पीछ दे देवें, यही नहीं, जो (भोए) भोग (साहीणे) स्वाधीन हैं उन्हें (चयई) छोड़ देता है। (हु) निश्चय (से) वह (चाइ) त्यागी है (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो गृहस्थाश्रम में रह रहा है, उसको सुन्दर और प्रिय भोग प्राप्त होने पर भी उन भोगों को पीठ दे देता है, यही नहीं, स्वाधीन होते हुए भी उन भोगों का परित्याग करता है। वही निश्चय रूप से सच्चा त्यागी है ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। मूलः समाए पेहाए परिव्ययंतो, सिया मणो निस्सरई बहिदा। "नसामहंनोविअहंपितीसे," इच्चेवताओविणएज्जरागllol छायाः समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यान्मनो निःसरति बहिः / न सा मम नोऽप्यहं तस्याः, इत्येव तस्या विनयेत रागम्।।७।। 090000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000ood 50000000000000000000 00000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/161 Jaimac000000000000000000 For.Personal &Private use only. 300000000000000 amavbajartemblery.org.
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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