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________________ 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000og 10000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000 Doo00000 50000000000 00000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! जिसके द्वारा बुद्धि एवं ज्ञान की न्यूनता हो, अर्थात् ज्ञान बुद्धि में बाधा रूप जो हो उसे ज्ञानावरणीय अर्थात् ज्ञान शक्ति को दबाने वाला कर्म कहते हैं। पदार्थ को साक्षात्कार करने में जो बाधा डाले, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा गया है। सम्यक्त्व और चारित्र को जो बिगाड़े, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जन्म मरण में जो सहाय्यभूत हो वह आयुष्कर्म माना गया है। जो शरीर आदि के निर्माण का कारण हो वह नाम कर्म है। जीव को जो लोकप्रतिष्ठित या लोकनिंद्य कुलों में उत्पन्न करने का कारण हो वह गोत्र कर्म कहलाता है। जीव की अनंत शक्ति प्रकट होने में जो बाधक रूप हो वह अन्तराय कर्म कहलाता है। इस प्रकार ये आठों ही कर्म इस जीव को चौरासी के चक्कर में डाल रहे हैं। मूल: नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं। ओहिनाणंच तइयं, मणनाणंच केवलं||४|| छाया: ज्ञानावरणं पञ्चविधं, श्रुतमाभिनिबोधिकम् / अवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम्।।४।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणंवरणं) ज्ञानावरणीय कर्म (पंचविहं) पांच प्रकार का है। (सुय) श्रुतज्ञानावरणीय (आभिणिबोहिय) मतिज्ञानावरणीय (तइयं) तीसरा (ओहिनाणं) अवधिज्ञानावरणीय (च) और (मणनाणं) मनःपर्यव ज्ञानावरणीय (च) और (केवल) केवल ज्ञानावरणीय। भावार्थ : हे गौतम! अब ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद हैं। सो सुनो। (1) श्रुतज्ञानावरणीय कर्म : जिसके द्वारा श्रवण शक्ति आदि में न्यूनता हो। (2) मति ज्ञानावरणीय : जिसके द्वारा समझने की शक्ति कम हो। (3) अवधिज्ञानावरणीय : जिसके द्वारा परोक्ष की बातें जानने में न आवें। (4) मनः पर्यव ज्ञानावरणीय : दूसरों के मन की बात जानने में शक्तिहीन होना / (5) केवलज्ञानावरणीय : संपूर्ण पदार्थों के जानने में असमर्थ होना। ये सब ज्ञानावरणीय कर्म के फल हैं। हे गौतम! अब ज्ञानावरणीय कर्म बंधने के कारण बताते हैं, सो सुनो (1) ज्ञानी के द्वारा बताये हुए तत्वों को असत्य बताना, तथा उन्हें असत्य सिद्ध करने की चेष्टा करना। (2) जिस ज्ञानी के द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका नाम तो छिपा देना और मैं स्वयं ज्ञानवान बना हूँ ऐसा वातावरण फैलाना (3) ज्ञान की असारता दिखलाना कि 000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000 * निर्ग्रन्थ प्रवचन/31 50000000000000000 Soo00000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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