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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 500000000000000000000 goo00000000000000000000000000000000000000000000 oooooood 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इस में पड़ा ही क्या है?आदि कहकर ज्ञान एवं ज्ञानी की अवज्ञा करना। (4) ज्ञानी से द्वेष भाव रखते हुए कहना कि वह पढ़ा ही क्या है?कुछ नहीं। केवल ढ़ोंगी होकर ज्ञानी होने का दम भरता है, आदि कहना। (5) जो कुछ सीख पढ़ रहा हो उसके काम में बाधा डालने में हर तरह से प्रयत्न करना। (6) ज्ञानी के साथ अण्ट सण्ट बोलकर व्यर्थ का झगड़ा करना। आदि आदि कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है। मूल : निद्दा तहेव पयला; निद्दानिहाय पयलपयला या तत्तो अ थीणगिरी उ, पंचमा होइ नायव्वा||५|| छाया: निद्रा तथैव प्रचला, निद्रानिद्रा च प्रचलाप्रचलाच ततश्चस्त्यानगृद्धिस्तु, पञ्चमा भवति ज्ञातव्या।।५।। मूल : चक्खुमचक्खू ओहिस्स, दंसणे केवले अ आवरणे। एवं तु नवविगप्पं, नायवं दंसणावरणं||६|| छायाः चक्षुरचक्षुरवधेः, दर्शने केवले चावरणे। एवं तु नवविकल्पं, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् / / 6 / / _ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (निद्दा) सुखपूर्वक सोना (तहेव) ऐसे ही (पयला) बैठे बैठे ऊँघना (य) और (निद्दानिद्दा) खूब गहरी नींद (य) और (पयलपयला) चलते चलते ऊँघना (तत्तो अ) और इसके बाद (पंचमा) पांचवीं (थीणगिद्धि उ) स्त्यानगृद्धि (होई) है, ऐसा (नायव्वा) जानना चाहिए (चक्खुमचक्खू ओहिस्स) चक्षु, अचक्षु, अवधि के (दंसणं) दर्शन में (य) और (केवले) केवल में (आवरणे) आवरण (एवं तु) इस प्रकार (नवविगप्पं) नौ भेद वाला (दंसणावरणं) दर्शनावरणीय कर्म (नायव्वं) जानना चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! अब दर्शनावरणीय कर्म के भेद बतलाते हैं, सो सुनो (1) अपने आप ही नियत समय पर निंद्रा से युक्त होना (2) बैठे बैठे ऊँघना अर्थात् नींद लेना (3) नियत समय पर भी कठिनता से जागना (4) चलते फिरते ऊँघना और (5) पांचवा भेद वह है कि सोते-सोते छ: मास बीत जाना। ये सब दर्शनावरणीय कर्म के फल हैं। इसके सिवाय चक्षु में दृष्टिमान्द्य या अन्धेपन आदि की हीनता का होना तथा सुनने की, सूंघने की, स्वाद लेने की, स्पर्श करने की, शक्ति में हीनता, अवधि दर्शन होने में और केवल दर्शन अर्थात् सारे जगत 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops निर्ग्रन्थ प्रवचन/32 dooo000000000000ood 500000000000006 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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