________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 को हाथ की रेखा के समान देखने में रुकावट का आना ये सब के सब नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म के फल है। हे आर्य! जब आत्मा दर्शनावरणीय कर्म बांध लेता है तब वह जीव ऊपर कहे हुए फलों को भोगता है। अब हम यह बतावेंगे कि जीव किन कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बांध लेता है। सुनो (1) जिसको अच्छी तरह से दीखता है, उसे भी अन्धा और काना कहकर उसकी निंदा करना / (2) जिसके द्वारा अपने नेत्रों को फायदा पहुंचा हो और न देखने पर भी उस पदार्थ का सच्चा ज्ञान हो गया हो, उस उपकारी के उपकार को भूल जाना। (3) जिसके पास चक्षु ज्ञान से परे अवधिदर्शन है, जिस अवधिदर्शन से वह कई भव अपने एवं औरों को देख लेता है। उसकी अवज्ञा करते हुए कहना कि क्या पड़ा है ऐसे अवधिदर्शन में?(४) जिसके दुखते हुए नेत्रों के अच्छे होने में वा चक्षु दर्शन से भिन्न अचक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन में और अवधि दर्शन के प्राप्त होने में एवं सारे जगत को हस्तामलकवत् देखने वाले केवल दर्शन प्राप्त करने में रोड़ा अटकाना। (5) जिसको नहीं दिखता है तो भी अन्धा बन बैठा है। चक्षु दर्शन से भिन्न अचक्षु दर्शन का जिसे अच्छा बोध नहीं होता हो, उसे कहे कि जानबूझ कर मूर्ख बन रहा है और जो अवधि दर्शन से भव भवान्तर के कर्तव्यों को जान लेता है तो उसको कहे कि ढ़ोंगी है एवं केवल दर्शन से जो प्रत्येक बात का स्पष्टीकरण करता है। उसे असत्यवादी कहकर जो दर्शन के साथ द्वेष भाव करता है। (6) इसी प्रकार चक्षुदर्शनीय, अवधिदर्शनीय एवं केवल दर्शनीय के साथ जो व्यक्ति निंदा करते हुए अपनी ही कुंठा अभिव्यक्त करता है। मूल : वेयणीयं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं। सायस्स उ बहू भेया, एमेव आसायस्स वि।।७।। छाया : वेदनीयमपि च द्विविधं, सातमसातं चाख्यातम्। __सातस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवासातस्यापि।।७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वेयणीयं पि) वेदनीय कर्म भी (सायमसायं च) साता और असाता (दुविह) यों दो प्रकार का (आहिय) कहा गया है। (सायस्स) साता के (उ) तो (बहू) बहुत से (भया) भेद है। (एमेव आसा यस्स वि) इसी प्रकार असाता वेदनीय के भी अनेक भेद हैं। भावार्थ : हे गौतम! फुसी, फोड़े, ज्वर, नेत्रशूल आदि अन्य तथा सब शारीरिक और मानसिक वेदना असातावेदनीय कर्म के फल हैं। इसी तरह निरोग रहना, चिन्ता फिक्र कुछ भी नहीं होना ये सब 00000000000000000 000000 0000000000000000000000000p नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/33 1000000000000000oood Jain Education International Fon Personal & Private Use Only booooooooooooooooor www.jamelierary.org TO