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________________ 10000000000000000000000000000000oooooooooooooooooooooooooooo Sooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शारीरिक और मानसिक सुखसाता वेदनीय कर्म के फल हैं। हे गौतम! यह जीव साता और असाता वेदनीय कर्मों के किन किन कारणों से बांध लेता है? सो अब सुनो, धन-सम्पत्ति आदि ऐहिक सुख प्राप्ति होने का कारण साता वेदनीय का बन्ध है। यह साता वेदनीय बन्धन इस प्रकार बंधता है-दो इन्द्रिय वाले लट गिण्डोरे आदि; तीन इन्द्रिय वाले मकोड़े, चींटियाँ, जूं आदि चार इन्द्रिय वाले, मक्खी, मच्छर, भौरें आदि; पांच इन्द्रिय वाले हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट, गांय, बकरी आदि तथा वनस्पति स्थिति जीव और पृथ्वी, पानी, आग, वायु इन जीवों को किसी प्रकार से कष्ट और शोक नहीं पहुंचाने से एवं इन को झुराने तथा अश्रुपात न कराने से, लात घूसा आदि से न पीटने एवं परिताप न देने से, इनका विनाश न करने से, सातावेदनीय का बंध होता है। __शारीरिक और मानसिक जो दुःख होता है, वह असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारणों से होता है / वे कारण यों हैं। प्राण, भूत, जीव और सत्व इन चारों ही प्रकरा के जीवों को दुःख देने से, फिक्र उत्पन्न कराने से, झुराने से अश्रुपात कराने से, पीटने से, परिताप व कष्ट उत्पन्न कराने से असाता वेदनीय का बंध होता है। (नोट : समस्त सांसारिक वैभव साता वेदनीय कर्म का परिणाम है। अतः जीवरक्षण एवं पर्यावरण को सबल बनाते रहना चाहिये।) मूल: मोहणिज्जं पिदुविहं, दंसणे चरणे तहा। दसणे तिविहं वुत्वं, चरणे दुविहं भवेllll छायाः मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा। दर्शने त्रिविधमुक्तं, चरणे द्विविधं भवेत्।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोहणिज्जं पि) मोहनीय कर्म भी (दुविह) दो प्रकार का है। (दंसणे) दर्शन मोहनीय (तहा) तथा (चरणे) चारित्र मोहनीय। अब (दंसणे) दर्शन मोहनीय कर्म (तिविहं) तीन प्रकार का (वृत्तं) कहा गया है और (चरणे) चारित्र मोहनीय (दुविह) दो प्रकार का (भवे) होता है। भावार्थ : हे गौतम! मोहनीय कर्म जो जीव बांध लेता है उसको अपने आत्मीय गुणों का भान नहीं रहता है। जैसे मदिरा पान करने वाले को कुछ भान नहीं रहता। उसी तरह मोहनीय कर्म के उदय रूप में जीव को शुद्ध श्रद्धा और क्रिया की तरफ भान नहीं रहता है। यह कर्म दो प्रकार का कहा गया है। एक दर्शन मोहनीय दूसरा चारित्र 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 604 निर्ग्रन्थ प्रवचन/343 Pacoco00000000000000 ग्रन्थ प्रवचन/34 For Personal&Privalguse only.SOC 0000000 wwwjalle traforg
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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