________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 300000000000000000000000000000000000 00000000000000000000 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अध्याय दो: कर्म निरुपण ॥श्रीभगवानुवाच| मूल: अट्ठ कम्माइंवोच्छामि, आणुपुलिं जहक्कम जेहिं बदो अयं जीवो, संसारे परियट्ट||१|| छायाः अष्ट कर्माणि वक्ष्यामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम्। यैर्बद्धोऽयं जीवः संसारे परिवर्त्तते।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अट्ठ) आठ (कम्माइं) कर्मों को (आणुपुब्बिं) अनुपूर्वी से (जहक्कम) क्रमवार (वोच्छामि) कहता हूँ, सो सुनो। क्योंकि (जेहिं) उन्हीं कर्मों से (बद्धो) बंधा हुआ (अयं) यह (जीवो) जीव (संसारे) संसार में (परियत्तइ) परिभ्रमण करता है। _भावार्थ : हे गौतम! जिन कर्मों को करके यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है, जिन के द्वारा संसार का अन्त नहीं होता है, वे कर्म आठ प्रकार के होते हैं। मैं उन्हें क्रम पूर्वक और उनके स्वरूप के साथ कहता हूँ। मूल: नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जंतहा मोहं, आउकम्मं वहेव य||२|| नामकम्मंच गोयं च, अंतराय तहेव या एवमेयाइ कम्माई, अट्ठेव उसमासओ||३|| छायाः ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा। वेदनीयं तथा मोहं, आयुः कर्म तथैव च।।२।। नामकर्मञ्च गोत्रं च, अन्तरायं तथैव च। एवमेतानि कर्माणि, अष्टौ तु समासतः।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणस्सावरणिज्ज) ज्ञानावरणीय (तहा) तथा (दंसणावरणं) दर्शनावरणीय (तहा) तथा (वयणिज्ज) वेदनीय (मोह) मोहनीय (तथैव) और (आउकम्म) आयुष्कर्म (च) और (नामकम्म) नाम कर्म (च) और (गोयं) गोत्र कर्म (य) और (तहेव) वैसे ही (अन्तराय) अन्तराय कर्म (एवमेयाइ) इस प्रकार ये (कम्माइं) कर्म (अटटेव) आठ ही (समासओ) संक्षेप में ज्ञानीजनों ने कहे हैं। (उ) पादपूर्ति अर्थ में। 3000000000000000000000000000000 500000000000000000oog 3000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/303 oooooooooood 0000000000006 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org