SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000QA do0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : गुणाणमासओ दळ, एगदबास्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे||१८|| छाया: गुणानामाश्रयो द्रव्यः एकद्रव्याश्रिता गुणाः। लक्षणं पर्यवानां तु उभयोराश्रिता भवन्तिः / / 18 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (गुणाणं) रूपादि गुणों का (आसओ) आश्रय जो है वह (दव्वं) द्रव्य है और जो (एगदव्वसिया) एक द्रव्य आश्रित रहते आये हैं वे (गुण) गुण हैं (त) और (उभओ) दोनों के (अस्सिया) आश्रित (भवे) हो, वह (पज्जवाणं) पर्यायों का (लक्खणं) लक्षण है। ____ भावार्थ : हे गौतम! रूपादि गुणों का जो आश्रय है, उसको द्रव्य कहते हैं और द्रव्य के आश्रित रहने वाले रूप, रस स्पर्श आदि ये सब गुण कहलाते हैं और द्रव्य तथा गुण इन दोनों के आश्रित जो होता है, अर्थात् द्रव्य के अन्दर तथा गुणों के अन्दर जो पाया जाए, वह पर्याय कहलाता है। अर्थात् गुण द्रव्य में ही रहता है किन्तु पर्याय द्रव्य और गुण दोनों में रहता है। यही गुण और पर्याय में अन्तर है। मूल : एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य| संजोगाय विभागाय, पज्जवाणं तु लक्खणं||१९|| छाया: एकत्वञ्च पृथक्त्वञ्च संख्या संस्थानमेव च। संयोगाश्च विभागश्च पर्यवानां तु लक्षणम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पज्जवाणं) पर्यायों का (लक्खणं) लक्षण यह है कि (एगत्तं) एक पदार्थ के ज्ञान का (च) और (पुहत्तं) उससे भिन्न पदार्थ के ज्ञान (च) और (संखा) संख्या का (य) और (संठाणमेव) आकार प्रकार का (संजोगा) एक से दो मिले हुओं का (य) और (विभागाय) यह इससे अलग है, ऐसा ज्ञान जो करावे वही पर्याय है। भावार्थ : हे गौतम! पर्याय उसे कहते हैं, कि यह अमुक पदार्थ है, यह उससे अलग है, यह अमुक संख्या वाला है, इस आकार प्रकार का है, यह इतने समूह रूप में है, आदि ऐसा जो ज्ञान करावे वही पर्याय है। अर्थात् जैसे यह मिट्टी थी पर अब घट रूप में है। यह घट, उस घट से पृथक रूप में है। यह घट संख्याबद्ध है। पहले नम्बर का है या दूसरे नम्बर का है। यह गोल आकार का है। यह चौरस आकार का है। यह दो घट का समूह है। यह घट उस घट से भिन्न है आदि, ऐसा ज्ञान जिसके द्वारा हो वही पर्याय है। ॥इतिप्रथमोऽध्यायः|| 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - निर्ग्रन्थ प्रवचन/29 5000000000000000 Jain Education International 0000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy