________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000 3OOOOO 000000000 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! जो जीव और जड द्रव्यों को गमन करने में सहाय्यभूत हो, उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं और जो ठहरने में सहाय्य भूत हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं। पांचों द्रव्यों को जो आधारभूत होकर अवकाश दे उसे आकाशास्तिकाय कहते हैं। मूल : वत्तणालक्खणो कालो; जीवो उवओगलक्खणो। नाणेण दंसणेण च; सुहेण य दुहेण य|१६|| छायाः वर्त्तना लक्षणः कालो जीव उपयोग लक्षणः। ज्ञानेन दर्शनेन च सुखेन च दुःखेन च।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वत्तणालक्खणो) वर्तना है जिसका लक्षण उसको (कालो) समय कहते हैं। (उवओगलक्खणो) उपयोग लक्षण है जिसका उसको (जीवो) आत्मा कहते हैं। उसकी पहचान है (नाणेण) ज्ञान (च) और (दसणेण) दर्शन (य) और (सुहेण) सुख (य) और (दुहेण) दुःख के द्वारा। भावार्थ : हे शिष्य! जीव और पुद्गल मात्र के पर्याय बदलने में जो सहायक होता है, उसे काल कहते हैं। ज्ञानादि का एकांश या विशेषांश जिसमें हो वही जीवास्तिकाय है। जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञानादि न सम्पूर्ण ही है और न अंश मात्र ही है, वह जड़ पदार्थ है। क्योंकि जो आत्मा है, वह सुख, दुःख, ज्ञान, दर्शन का अनुभव करता है। इसी से इसे आत्मा कहा गया है और इन कारणों से ही आत्मा की पहचान मानी गई है। मूल : सइंधयारउज्जोओ, पहा छायाऽऽतवे इवा। वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खण||१७|| छायाः शब्दोऽन्धकार उद्योतःप्रभाच्छायाऽऽतप इति वा। वर्णरसगन्धस्पर्शाः पुद्गलानाञ्च लक्षणम्।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (संदधयार) शब्द और अंधकार (उज्जोओ) प्रकाश (पहा) प्रभा (छायाऽऽतेवइ) छाया, धूप आदि ये (वा) अथवा (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्शादि को (पुग्गलाणं) पुद्गलों का (लक्खणं) लक्षण कहा है। (तु) पाद पूर्ति। भावार्थ : हे गौतम! शब्द, अन्धकार, रत्नादिक का प्रकाश, सूर्य, चन्द्रादिक की कांति, शीतलता, छाया, धूप आदि ये सब और पांचों वर्णादिक, सुगंध, पांचों रसादिक और आठों स्पर्शादिक से पुद्गल जाने जाते हैं। igcoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oops Pce नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/28 do00000000000000000 Jain Eucalon internationa For Personal & Private Use Only Doo000000000000006 www.jainelibrary.org.